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उत्तराखंड के घरों के आंगन में अब सुनाई नहीं देती घुघुती (फाख्ता) की घुर घुर-चंद्र सिंह रावत

घुघुती

जैसे ही हम घुघुती का नाम लेते हैं वैसे ही हमें एक पहाड़ी पक्षी जो हमारे आँगन, घर, पेड़ और छत में घू–घू करती है मन में घूमने लगती है। शायद ही कोई व्यक्ति उत्तरापथ (हिमवंत) का होगा जो इस पक्षी से परिचित नहीं होगा। यह बहुत ही डरपोक किस्म का पक्षी होता है। थोड़ी सी आहट पाते ही यह दूर भाग जाता है और फिर कुछ ही देर के पश्चात लौट आता है। घर के आँगन में बिखरे पड़े दानों को यह चट कर जाते हैं। बहुत ही शांत प्रकृति की होती है यह। यह कबूतर के ही प्रजाति का पक्षी है।

फरवरी में जब मैं गाँव गया हुआ था और घुघुती की घू–घू नहीं सुनी और गाँव में उस समय ढूंढ कर भी घुघुती नहीं देखी। तब मैंने अपनी ईजा से पूछा कि - ईजा, आजकल घुघुते नहीं दिख रहे हैं। तब ईजा ने बताया कि घुघुते सर्दियों में परदेश चले जाते हैं और फिर फाल्गुन के अंतिम दिनों में वापस आ जाते हैं। जब ये वापस आते हैं तब इनके पंख ऐसे दिखते हैं जैसे इनके पखों पर पालिस की हुई हो। ये उन दिनों इतने सुंदर दिखते हैं कि देखते ही रहने का मन करता है।

बचपन में अपने छोटे भाई-बहिनों को दोनों पैरों और पीठ पर बिठाकर हम - घूघूती – बसूति, तेरि ब्वे कख च, झुला धूण, ले चिलंगी ले ले ले - ले चिलंगी ले ले ले। इसका अर्थ है – घूघूती घू घू कर बोल रही है और तेरी मां कहां है, वह कपड़े धोने गई हुई है चील आकर ले जा ले जा। लोरी सी सुनाते थे ताकि बच्चे झूला झूलते हुए आनंदित हो सो जाएं। उन दिनों इसी प्रकार से हम बच्चों को खेलाते थे।

बचपन में गर्मियों में जब घर के बुजुर्ग दिन भर का काम कर थक-हार कर सो जाते तो हम चुपके से घर के किवाड़ खोल कर बाहर निकल जाते और निकल पड़ते पक्षियों के अंडों की खोज में डाली-डाली, पेड़-पेड़, झाड़ी-झाड़ी। अंडे मिल जाते तो उनके चिलौड़े बनाते और खाते। तब तक हमें नहीं पता था कि इन्हीं चिलोड़ों को ऑमलेट कहते हैं। बचपन में कभी कभी हम घर के आंगन में सूप को एक डोरी से बांधकर और उसके नीचे कुछ दाने डालकर चिड़ियों को पकड़ते और कभी पकड़ने में सफल हो गए तो उन्हें भून कर खा जाते।

उत्तराखंड के गांवों से अब मैना, कौवे, गरुड गायब हैं उनके स्थान पर अब नई नई प्रकार की पक्षियाँ आ गईं हैं। जिस प्रकार से इंसान अपने आप से खुश न होकर दूसरे स्थानों को पलायन कर रहा है ठीक उसी प्रकार से शायद पक्षियाँ भी इधर-उधर भटक कर नया आशियाना बना रही हैं। नए स्थानों, कस्बों, शहरों और देशों को अपना नया ठिकाना बना रही हैं। शायद उनके आगे भी पेट पालने या अपने सात पुस्तों के लिए कुछ रख छोड़ने की इच्छा हो रही हो।  

जिस प्रकार से इंसान नित नए दिन नवीन प्रयोग कर रहा है ऊंचाइयों को छूने के लिए पलायन कर रहा है कदाचित उसी प्रकार से पक्षियाँ भी अपना नवीन प्रयोग कर रही होंगी।

चंद्र सिंह रावत “स्वतंत्र”

इंदिरापुरम



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