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बैसाख संक्रांति से शुरू हुआ टिहरी का ऐतिहासिक मेला छाम, व्यापार मंडल ने सरकार से रखी इसके पौराणिक स्वरुप की मांग

टिहरी का छाम मेला

TEHRI KA CHHAM MELA  : उत्तरखंड में वर्षों पूर्व से ही मेलों का अपना एक विशेष महत्व रहा है। जहां एक ओर ये उत्तराखंड की संस्कृति को फ़ैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं वहीं ऐतिहासिक दृष्टि से भी इनकी पहचान होती है। ये लोगों में उत्साह जगाने के साथ साथ रिश्तों में भी एकरसता बनाये रखते हैं। 

ऐसा ही एक ऐतिहासिक मेला टेहरी जनपद में भी प्रसिद्ध है जिसे छाम के नाम से जाना जाता है। छाम जनपद टेहरी के थौलधार ब्लॉक का हेडक्वाटर है। प्रतिवर्ष बैसाख महीन से शुरू होने वाला यह मेला दशहेरे तक चलता है। टेहरी क्षेत्र के कंडीसौड़ में बिखोती से शुरू होकर हर माह विभिन्न स्थानों पर अलग- अलग तिथियों में आयोजित होने वाले छाम मेले की अपनी अपनी ऐतिहासिक परम्पराएं हैं। यह कुछ स्थानों पर बड़े स्तर पर और कुछ में छोटे स्तर पर आयोजित होते हैं किंतु सभी के पौराणिक महत्व हैं। रियासतकाल  से ही बैसाख महीने की संक्रांति को भागीरथी तट पर छाम मेलों का आयोजन होता आ रहा है।


टिहरी बांध बन जाने के कारण पुरानी टिहरी जल भराव के कारण एक झील के रूप में तब्दील हो गई है। छाम कंडीसौड़ के व्यवसायी देवचंद रमोला ने बताया कि हमने नब्बे के दशक में भागीरथी किनारे छाम के तरासौड़ में वैशाख मेले को आयोजित होते देखा है। तब मेले में आकर लोग अपने परिचितों से मिलने आते थे और दूर दराज रहने वाली बहु बेटियां एक-दूसरे को कलेऊ बांटा करती थी । मेले में दूसरे जनपदों के व्यापारी भी अपनी दुकानें लगाते थे जिससे एक-दूसरे की संस्कृति का आदान-प्रदान भी होता था और रिश्तों में प्रगाढ़ता आती थी। मेले का आयोजन  जनपद के नगुण से सुरु होकर महीने दर महीने देवी सऊद, चिन्यालीसौड़, कांडीखाल, कमांद, चंबा और और अंत में दशहरे पर सुरकंडा देवी पर समाप्त होता है। इसे स्थानीय भाषा में बिखोत त्यौहार के नाम से भी जाना  जाता है और हज़ारों की संख्या में लोग मेले में जुड़कर इसका आनंद उठाते हैं । 

हालांकि समय के साथ मेले का पौराणिक स्वरुप भी बदला है। टेहरी बांध बनने के बाद से स्थानीय व्यापार मंडल के सहयोग से क्षेत्र के लोगों द्वारा वर्ष 2008 से इस मेले का कंडीसौड़ में आयोजन किया जा रहा है। व्यवसाई देवचंद रमोला ने कहा कि यदि सरकार से सहायता मिले तो सदियों पुराने इसे मेले को पौराणिक व सांस्कृतिक स्वरुप दिया जा सकता है।  

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