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प्रकृति और मानव के बीच संतुलन बनाता है हरेला पर्व

हरेला पर्व

प्रकृति और मानव के बीच संतुलन बनाता है हरेला पर्व 

मानव जीवन में खुशियां बाँटने के लिए यूं तो अनेकों पर्व हैं लेकिन यदि उत्तराखंड की बात करें तो यहाँ मनाये जाने वाले अधिकतर पर्व पर्यावरण संतुलन,ऋतु परिवर्तन और संस्कृति प्रेम को दर्शाते हैं। हरियाली, पर्यावरण संरक्षण और लोक संस्कृति को दर्शाता एक ऐसा ही पर्व है हरेला जो वर्षभर में तीन बार चैत्र, श्रावण और अश्विन महीने में मनाया जाता है किंतु श्रावण महीने में मनाये जाने वाले हरेला पर्व का विशेष महत्त्व है। इस वर्ष यह पर्व 16 जुलाई को मनाया जायेगा। 

पूरे भारत वर्ष में श्रावण महीने में भगवान शिव की पूजा अर्चना की जाती है क्योंकि यह महीना शिव को अतिप्रिय है। उत्तराखंड में स्थित हिमालय शिव का धाम है इस कारण वहां वो अतिपूज्यनीय है। यहां हरेला पर्व से ही श्रावण महीने आरंभ होता है। 

कैसे मनाते है हरेला पर्व 

श्रावण महीना आरंभ होने से 10 दिन पहले लोग हरेला पर्व की शुरुआत एक टोकरी में मिट्टी डालकर पांच या सात प्रकार के अनाज जिसमें धान, गेंहूं, उड़द, गहत, भट्ट,जौ,मक्का को बोकर किया जाता है। नित्यप्रति नहा धोकर इसे पानी से सींचा जाता है। चार-पांच दिन बाद ये अंकुरित हो जाते हैं जो पौधे का रूप धारण करते हैं जिसे हरेला कहा जाता हैं। हरेला को कुछ लोग नौवें दिन तो कुछ दसवें दिन काटते हैं। जो नौ दिन में काटते है वो अनाज को हरेला से नौ दिन पहले और जो दस दिन में काटते हैं वो हरेला से दस दिन पहले अनाज बोते हैं। 

हरेला पर्व के दिन प्रातः स्नान ध्यान करके पूरे विधि विधान से पूजा अर्चना कर हरेला को प्रतिष्ठ कर जाता है फिर अपने घर के मंदिर में अपने इष्टदेवों और देताओं को समर्पित करने  बाद घर के खिड़की दरवाजों व दहलीज़ पर रखा जाता है फिर घर के बड़े बुजुर्गों द्वारा घर के सदस्यों के सर पर हरेला को आशीर्वाद स्वरुप रखा जाता है। घर की बेटियों और घर से दूर रह रहे सदस्यों विशेषकर युवाओं को हरेला सहसम्मान पहुंचाया जाता है तांकि हमारी नई पीढ़ी अपनी संस्कृति से जुडी रहे। 

उत्तराखंड के उमेश सती कहते हैं कि चुंकि हमारे प्रदेश में शिवजी का धाम है अतः लोग इनकी ही पूजा ज्यादा करते है इसलिए कुमाऊं क्षेत्र में कई स्थानों पर हरेले के अवसर पर मिट्टी से शिव, पार्वती , गणेश की मूर्तियां बना कर उन्हें हरेले के बीच मे रखकर उनके हाथों में  दाड़िम या किलमोड़ा की लकड़ी गुड़ाई के निमित्त पकड़ा देते है इन्हें स्थानीय भाषा में डिकरे  कहा जाता है। इनकी विधिवत पूजा कर छउवा व चीले के साथ मौसमी फलों का चढ़ावा चढ़ाया जाता है। कटे हुए हरेले में से दो पुड़ी या कुछ भाग छत के शीर्षतम बिंदु जिसे धुरी कहते है, वहा रख दिया जाता है। इसके बाद कुल देवताओं और गाव के सभी मंदिरों में हरेला चढ़ाया जाता है।

जी रया, जागि रया 

यो दिन बार, भेटने रया

दुबक जस जड़ हैजो

पात जस पौल हैजो

स्यालक जस त्रण हैजो

हिमालय मा ह्यूं छन तक

गंगा म पाणि छन तक

हरेला त्यार मानते रया 

जी रया जागि रया। 

घर के बड़े बुजुर्ग हरेले के इस आशीष गीत के साथ घर के सदस्यों को अपना आशीर्वाद देते हैं। उनका कहना है कि वर्तमान में यह परम्परा कम हो गयी है। 

वैज्ञानिक दृष्टिकोण 

कृषि क्षेत्र में इस त्यौहार को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी देखा जाता है। कहते हैं खेत की मिट्टी की उर्वरक क्षमता को मापने का भी हरेला एक उत्तम तरीका था। इस त्यौहार में मिट्टी में जो 5 या 7 प्रकार का अनाज रोपा जाता है उससे पौध किसकी अच्छी होती है उसी आधार पर लोग खेती किया करते थे। 


हरेला पर किया जाता है बृक्षारोपण 

जैसा की नाम से ही विदित हो रहा है कि हरेला पर्व का संबंध हरियाली से है इसलिए  इस दिन वृक्षारोपण को अधिक महत्त्व दिया जाता है। एक धारणा के अनुसार यदि इस दिन किसी पेड़ की लता या टहनी को भी रोप दिया जाय तो वह जड़ पकड़ लेती है और वास्तव में ऐसा होता देखा भी गया है। उत्तराखंडी लोग पर्यावरण के प्रति ज्यादा जागरूक होते हैं इसलिए हरेले के दिन पूरे प्रदेश में बृक्षारोपण किया जाता है। प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 2022 में हरेला पर्व पर 15 लाख वृक्ष लगाने का लक्ष्य रखा है।  



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