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कवी भगवती जुयाल गढ़देशी की रचना- मां की आस




विषम परिस्थितियों से संघर्ष करती पहाड़ की नारी की भी अपने  बच्चों से कुछ आशाएं होती है। उन्हीं आशाओं को उजागर कर रही है कवी भगवती जुयाल गढ़देशी की यह रचना  

                        (भगवती जुयाल गढ़देशी) 

मां की आश

उठ  लाटा  सुबेर  ह्वेगि

घाम  ऐगि  छान्यूं  मा

चखुला सभि घोलु छोड़ी

हंसणा खेलणा  डाल्यूं मा

            तू  कन  सुनिंद छै  ह्वयूं

        ले  कि खंतड़ि  मुख  मा

            ओबरा गोरू भूखौ रमणा

            जौंवू  कन  क्वे  पांती  मा

स्कुल्या सभी तेरा दगड्या

    त्वे  जग्वलणा  बाठा  मा

किलै  ह्वेलि  तू  मै  पितौणू

   क्या च  निरभै  भाग  मा

            तु  कन  सुनिंद  छै  ह्वयूं 

            लेकि  खंतड़ी  मुख  मा

            बुबा कि तेरी चिठ्ठी न पतरी

            दादी  बिमार  घौर  मा

जब  बिटी  गै  छा  परदेश 

   दिन  कटेणा यु सारा मा

कभि न कभि त बौड़ला चुचा

    जीणू  छौं  यीं  आश  मा

             पोस्ट मैन भैजी आणा होला

             खबर साल  लाला  साथ  मा

             पोरू  मैना  भैजी  ऐछा

             अंगड़ी  लै  छा साथ  मा

गुड़ भेली चणौं का दाणा

     बांटी चलि गै छा गौ मा

बंधै  गैछा  ढाढस  मिथैं

     त्वे  लिजौलु  साथ  मा

             पढि लिखी कि बाबू बणिलू

             जीणू  छौं  यीं  आश मा

             लोखौ का नौना पढि लिखी

             भर्ती  होयां  छन  फौज  मा

त्वेकु  कन  निरबंटु  आई

    रैगें दर्जा पांच का पांच मा

क्या  पाई  मिन  पालि सैंति

   खौपरी हुंचाई या डांग मा

             रोंदु  छौं  त  रोऊं  कैमू

             अपणु  सी क्वी दिखेंद नी

             दिन  कटनी  जै का सारा

             घौर  बौड़ू  स्यू  होंद नी

             घौर  बौड़ू  स्यू  होंद  नी।।


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