झंगोरा (Echinochloa frumentacea)
उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियों, जलवायु एवं भूमि के प्रकार को देखकर ही वर्षो पूर्व लोगों ने मोटे अनाजों को प्रार्थमिकता दी। इसका एक मूल कारण यही था कि वहां पर पर्याप्त सिंचाई के साधन नहीं थे और लोगों को वर्षा पर ही अधिक निर्भर रहना पड़ता था ऐसे में असिंचित खेती को ज्यादा प्रार्थमिकता देना ही उनका उद्देश्य था । वैसे तो उत्तराखंड में विभिन्न प्रकार की पारम्परिक फसलें उगाई जाती है जिनमें धान, गेंहू, मंडवा (रागी), चौलाई, चीणा, कौणी, मुंगरी ( मकई) झंगोरा, राजमा, अरहर, उड़द, भट, रेंस, गैथ (कुल्थी) इत्यादि प्रमुख है।
ऐसा ही एक अनाज है झंगोरा जिसका वानस्पतिक नाम Echinochloa frumentacea है। इसे असीमित सिंचाई वाले स्थानों पर आसानी से कम लागत में उगाया जा सकता है। यह दिखने में कुछ-कुछ बाजरे के तरह ही होता है और भारत के कई शहरों में इसे ब्रत के चावल के नाम से भी जाना जाता है। यह बहुत ही तेज उगने वाली फसल है और किसी भी वातावरण में इसे उगाया जा सकता है। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि अनाज के साथ साथ इसे पशुचारे में भी उपयोग किया जा सकता है जिसे स्थानीय किसान लंबे समय तक सुरक्षित रखकर विपरीत मौसम में जब पशुचारे की कमी हो तो इसका उपयोग करते है। झंगोरे की खूबियों को देखते हुए इसे बिलियन डॉलर ग्रास भी कहा जाता है। मराठी में इसे भगर या वरी कहते हैं तो तमिल में कुथिरावाली इसके अलाबा बंगाल में इसे श्याम या श्यामा चावल के नाम से जाना जाता है, गुजराती में इसे मोरियो और सामो कहते है, हिंदी में इसे मोरधन, समा, वरई, कोदरी, समवत और सामक चावल आदि नामों से जाना जाता है. यह भारत में ही नहीं अपितु अन्य अनेकों देशों जैसे नेपाल, पकिस्तान, चीन अफ्रीका, जापान तथा कुछ यूरोपीय देशों में भी पाया जाता है।
झंगोरे से प्रोटीन, कार्बोहइड्रेट, फास्फोरस, जिंक, आइरन, कैल्सियम भरपूर मात्रा में मिलता और यह पाचन में आसान है और शरीर में गुलुकोज की मात्रा को ठीक बनाए रखता है इसीलिए इसे मधुमेह के रोगियों के लिए उपयुक्त आहार माना गया है। उत्तराखंड का अधिकतर भू-भाग कृषि पर आधारित है और कृषि के लिए पशुओं की नितांत आवश्यकता होती थी इसलिए ये लोग पशुओं का विशेष ध्यान रखते थे। पशुओं की सेहत को दूरस्थ रखने के लिए ही वे उनको पशुचारे के रूप में झंगोरे का प्रयोग अधिक करते थे।
पहाड़ में झंगोरे की खीर, भात और छछिया, (छिछिडु) आदि पारंपरिक तौर पर लोकप्रिय व्यंजन हैं। 1970 तक झंगोरा पहाड़ों में बोई जाने वाली मुख्य फसल होने के साथ-साथ दैनिक भोजन का अभिन्न हिस्सा भी था। पहाड़ की अन्य परम्पराओं की तरह यह भी हाशिये पर जाता रहा। पहाड़ों में उगने वाले अनाजों पर देश-विदेश में हुए कई शोधों के बाद इसमें मौजूद पौष्टिक तत्वों एवं औषधीय गुणों की पुष्टि हुई तो आज विश्वभर में लोगों को ऑर्गनिक फसलों की याद आई और अब वे अपने खाने में इन्हें ज्यादा महत्व दे रहे हैं जिसे देखते हुए उत्तराखंड में भी ख़त्म होती कृषि को नई ऊर्जा मिली है क्योंकि यहां की पारम्परिक खेती को अब विश्व भर में जगह मिल रही है।
2 टिप्पणियाँ
बहुत उम्दा जानकारी। आम तौर पर ऐसी फसलों के बारे में जिन्हें हम माइनर सिरेल (Minor cerals) कहते हैं के बारे में बहुत कम प्रमाणिक जानकारियां उपलब्ध हैं। लेख में जो न्यूट्रीशनल विवरण दिया गया है उसमें वैज्ञानिक संदर्भ का जिक्र होता तो लेख ज्यादा प्रमाणिक लगता।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद। आपने उचित बात कही
जवाब देंहटाएं