करंट पोस्ट

8/recent/ticker-posts

सनातनी परम्परा में श्रद्धा भक्ति समर्पण का प्रतीक प्रयागराज कुंभ मेला

सनातनी परम्परा मे श्रद्धा भक्ति समर्पण का प्रतीक प्रयागराज कुंभ मेला

मेषराशिगते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ।
अमावस्या तदा योग: कुंभख्यस्तीर्थ नायके।।
बृहस्पति मेष राशि में तथा चंद्र-सूर्य मकर राशि में जब आते हैं और अमावस्या तिथि हो तो तीर्थराज प्रयाग में कुंभयोग होता है।
प्रयागराज में 2025 के महाकुंभ की तैयारियां अपने चरम पर हैं। यह आयोजन केवल भारत की संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि सनातन धर्म के गहन आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पहलुओं को भी उजागर करता है। कुंभ मेला को साधु-संतों, संन्यासियों और अखाड़ों के नागा साधुओं की उपस्थिति के बिना अधूरा माना जाता है। यह आयोजन केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि सनातन परंपराओं और समाज के प्रति धर्म की शिक्षाओं को स्थापित करने का अवसर है।
कुंभ मेला क्षेत्र में साधु-संतों के शिविरों की स्थापना से पहले भूमि का पूजन किया जाता है। संत जहां रहते हैं, वह स्थल और वहां का वातावरण तपस्थली की तरह होता है। ऐसे में यह पूजन धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। वैदिक परंपरा के अनुसार, भूमि पूजन से उस स्थान को शुद्ध किया जाता है, उसे किसी भी प्रकार के वास्तु, जल, वायु और जीव दोष, संकट और बाधाओं से मुक्त किया जाता है। साथ ही, इसे सकारात्मक ऊर्जा से भरने के लिए मंत्रोच्चार, पवित्र जल और अग्नि का सहारा लिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि बिना भूमि पूजन और बिना दोष मुक्ति विधान के न तो वहां आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रभाव होगा और न ही उसकी शक्ति लगेगी।
भूमि पूजन की प्रक्रिया शुभ मुहूर्त, लग्न और तिथि के अनुसार संपन्न होती है। इसमें वेद पाठियों द्वारा मंत्रोच्चार के साथ नारियल फोड़ने और हवन का आयोजन किया जाता है। यह प्रक्रिया न केवल धर्म और आस्था का प्रतीक है, बल्कि पर्यावरण को शुद्ध करने का माध्यम भी है।
कुंम्भ स्नान का सनातन धर्म में विशेष महत्व है। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति कुम्भ में स्नान करता है उसके सभी पापों का नष्ट हो जाता है। साथ ही व्यक्ति जन्म और मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
धर्मशास्त्रों के अनुसार अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष इन चारों दिव्य पुरुषार्थों को प्राप्त करना ही मानव जीवन का उद्देश्य है। जन्म और मृत्यु के चौरासी लाख चक्रों को पार करने के बाद दुर्लभ मानव शरीर प्राप्त होता है ताकि मनुष्य योनि में प्रभु की भक्ति कर मोक्ष पाकर जन्म और मरण के चक्र से मुक्ति मिल सके और मुक्ति के इस मार्ग को प्रशस्त कर अमृतत्व प्रदान करता है ‘कुम्भ पर्व’। ‘कुम्भ पर्व’ का आयोजन अनादिकाल से होता चला आ रहा है, जो केवल भारतवर्ष का ही नहीं अपितु पूरे विश्व के जनमानस की एकता, मानवता एवं आस्था का संगम है।
भारतीय संस्कृति में जन्म से मृत्यु तक के सभी शुभाशुभ संस्कारों में कुम्भ (कलश) को स्थापित करने के पश्चात् ही देव पूजन कर्म करने का विधान है। कलश या घट कुम्भ का पर्याय है, ज्योतिष शास्त्र में बारह राशियों में से कुम्भ एक राशि भी है। कुम्भ का आध्यात्मिक अर्थ है ज्ञान का संचय करना, ज्ञान की प्राप्ति प्रकाश से होती है और कुम्भ स्नान, दर्शन, पूजन से आत्म तत्व का बोध होता है। हमारे अन्दर ब्रह्माण्ड की समस्त रचना व्यापत है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ‘यत् पिण्डे, तत् ब्रह्माण्डे, तत् ब्रह्माण्डे, यत् पिण्डे’, अर्थात् जो मानव पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड है और जो ब्रह्माण्ड में है, वही मानव पिण्ड में है। कुम्भ, ‘घट’ का सूचक है और घट शरीर का, जिसमें घट-घट व्यापी आत्मा का अमृत रस व्याप्त रहता है।
यह मानव पिण्ड में निहित प्रतीकों में इसलिए व्याप्त है, जिसमें संत दर्शन, देव दर्शन आदि के माध्यम से मनुष्य अन्तर्मुखी होकर चिन्तन कर सके एवं समझ सके। ‘कुम्भ पर्व’ में जिस ऐतिहासिक कुम्भ का स्मरण किया जाता है वह अमृत कुम्भ सुधाकलश है जिसके लिए वैदिक काल में प्रसिद्ध देवासुर संग्राम हुआ था। समुन्द्रमन्थन से प्राप्त चौदह रत्नों में से एक अमृत कुम्भ था। इसी को प्राप्त करने के लिए देवताओं व असुरों में देवासुर संग्राम हुआ था। माना जाता है कि संमुद्र मंथन से जो अमृत कलश निकला था उस कलश से देवता और राक्षसों के युद्ध के दौरान धरती पर अमृत छलक गया था।
जहां-जहां अमृत की बूंद गिरी वहां प्रत्येक बारह वर्षों में एक बार कुंभ का आयोजन किया जाता है। उन चौदह रत्नों में अमृत कुम्भ ही सर्वोपरि महत्व की वस्तु थी, अतः उसी की स्मृति ‘कुम्भ पर्व’ के रूप में सुरक्षित चली आ रही है। हिंदू धर्मग्रंथ के अनुसार इंद्र के बेटे जयंत के घड़े से अमृत की बूंदे भारत में चार जगहों पर गिरी, हरिद्वार में गंगा नदी में, उज्जैन में शिप्रा नदी में, नासिक में गोदावरी और प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती के त्रिवेणी संगम स्थल पर। कुम्भ के माहात्म्य को जितना भी कहा जाए वह कम है,
‘‘अश्वमेध सहस्त्राणि वाजपेय शतानि च। लक्ष प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेन तत्फलं।।’’
एक हजार अश्वमेध यज्ञ, एक सौ वाजपेय यज्ञ एवं एक लाख पृथ्वी की परिक्रमा करने का जो फल प्राप्त होता है वही फल मनुष्य को ‘कुम्भ स्नान’ से मिलता है। प्रयागराज में 2025 में महाकुम्भ के आयोजन के अवसर पर गंगा, यमुना, सरस्वती के पावन त्रिवेणी संगम पर असंख्य श्रद्धालु मोक्ष की डुबकी लगाऐंगे। धार्मिक विश्वास के अनुसार कुंभ के अवसर पर श्रद्धापूर्वक स्नान करने वाले लोगों के सभी पाप कट जाते हैं और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। आइए अपने सामर्थ्य के अनुसार पहुंचे कुम्भ स्नान तीर्थ तक ,कुम्भ पावनता पवित्रता निर्मलता की भावनाओं के प्रतीक की आप सभी को अनंत शुभकामनाओं सहित बहुत बहुत बधाई

डाo सुनील दत्त थपलियाल आवाज़ साहित्यिक संस्था ऋषिकेश उत्तराखंड

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ