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श्रीनगर में गढ़वाली भाषा के उच्चारण भेद और व्याकरण पर हुई चर्चा विद्वानों ने कहा गढ़वाली समृद्ध भाषा

श्रीनगर में गढ़वाली भाषा के उच्चारण भेद और व्याकरण पर हुई चर्चा विद्वानों ने कहा गढ़वाली समृद्ध भाषा


श्रीनगर गढ़वाल : 5-6 अक्टूबर 2024 को हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय की भाषा प्रयोगशाला तथा उत्तराखण्ड लोक-भाषा साहित्य मंच के संयुक्त तत्त्वाधान में 'अखिल भारतीय गढ़वाली भाषा व्याकरण और मानकीकरण कार्यशाला' का आयोजन किया गया। कार्यशाला की शुरुआत कला, संचार और भाषा की संकायाध्यक्ष प्रो. मंजुला राणा, अधिष्ठाता छात्र कल्याण श्री महावीर सिंह नेगी तथा अन्य गणमान्य व्यक्तियों के द्वारा दीप प्रज्वलित कर हुई। 


उत्तराखण्ड लोक-भाषा साहित्य मंच के संयोजक दिनेश ध्यानी ने अपनी संस्था, उसके उद्देश्यों, संस्था की कार्य-प्रगति, महत्व आदि का विवरण प्रस्तुत करते हुए स्वागत संबोधन दिया । उन्होंने कहा कि गढ़वाली समृद्ध भाषा है, यह राजभाषा रही है और इसमें अनेकों आलेख, ताम्रपत व सभी विधाओं का समृद्ध साहित्य मौजूद है जो इसे संविधान की आठवीं सूची में शामिल करने के लिए पर्याप्त है। साहित्य मंच लगातार इस ओर अग्रसर है। तत्पश्चात एच. एन. बी. जी यू. के अंग्रेजी विभाग की वरिष्ठ सहायक आचार्य डॉ. सविता भंडारी ने सभी अतिथियों तथा प्रतिभागियों का स्वागत-अभिनंदन किया । विश्वविद्यालय परिवार की ओर से कार्यशाला के लिए अपेक्षित सहयोग के साथ डी.एस.डब्ल्यू प्रो. नेगी जी ने 'गढ़वाली भाषा के मानकीकरण की दृष्टि से इस कार्यशाला को महत्वपूर्ण बताया।

कला, संचार और भाषा की संकायाध्यक्ष प्रो. राणा जी ने गढ़वाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के आंदोलन की दृष्टि से इस कार्यशाला पर भरोसा जताया तथा भाषाविदों से गढ़वाली भाषा के विकास का आग्रह किया जिसका उन्नत और वैज्ञानिक व्याकरण तथा समृद्ध शब्द-भंडार हो एवं जो पूरे गढ़वाल क्षेत्र का एकस्वर में प्रतिनिधित्व कर सके। अपने वक्तव्य में प्रो. राणा ने इस बात पर बल दिया कि गढ़वाली को आठवीं अनुसूची की भाषा बनाने में राजनीतिक इच्छाशक्ति का निर्माण बुनियादी जरूरत है तथा हमें उसी प्रकार अनुसूचित भाषा का दर्जा प्राप्त करना है जिस प्रकार हमने उत्तराखण्ड राज्य प्राप्त किया। इस कार्यशाला की सबसे महत्वपूर्ण विशिष्टता थी-इसका संपूर्ण संचालन ‘गढ़वाली' में किया जाना । 


कार्यशाला को कुछ सत्रों में बाँटा गया था जिसमें प्रथम सत्र की अध्यक्षता श्री विष्णु दत्त कुकरेती जी ने की तथा डॉ. नंद किशोर हटवाल जी ने मानकीकरण एवं गढ़वाली भाषा में ध्वनि' विषय पर धाराप्रवाह गढ़‌वाली में सारगर्भित व्याख्यान दिया। उन्होंने 'मानकीकरण' की प्रक्रिया, आवश्यकता, चुनौतियों तथा मानकीकरण हेतु सहायक उपकरणों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया। जिससे प्रतिभागी शोधार्थियों के ज्ञान और समझ का विस्तार हुआ । प्रथम सत्र के अध्यक्षीय संबोधन में श्री कुकरेती जी ने कार्यशाला को गढ़‌वाली भाषा संस्कृति के संरक्षण में महत्वपूर्ण बताया एवं आयोजकों को ‘मूलाधार चक्र' की  आध्यात्मिक संज्ञा से विभूषित किया जो हमारी चेतना के जागरण में मुख्य होती है । 


इसके बाद द्वितीय सत्र की अध्यक्षता रमेश चंद्र घिल्डियाल ने की। इस सत्र में श्रीमती बीना बेंजवाल जी ने अपने ज्ञानवर्धक वक्तव्य में गढ़वाली भाषा के समृद्ध व्याकरण तथा शब्द-संपदा की प्रचुरता को प्रस्तुत किया। हिंदी भाषा के साथ तुलना करते हुए गढ़वाली की व्याकरणिक विशिष्टता को उभारने में इस वक्तव्य ने मुख्य भूमिका निभाई। गढ़‌वाली शब्दों के उदाहरण कलकिलि ,नथुलु, नथुलि के समुचित प्रयोगों से प्रतिभागियों में रोचकता देखने योग्य थी । अध्यक्षीय संबोधन में श्री घिल्डियाल जी ने कार्यशाला की आशातीत सफलता की शुभकामनाओं के साथ गढ़वाली भाषा के निरंतर मानकीकरण तथा युवा पीढ़ी से गढ़‌वाली-साहित्य पढ़ने का आग्रह किया।

तृतीय सत्र की अध्यक्षता 'गढ़-गौरव', 'गढ़-रत्न, संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाले श्री नरेंद्र सिंह नेगी जी द्वारा किया गया। इस सत्र में दो वक्ताओं ने 'गढ़वाली भाषा के क्रिया रूप' विषय पर अपनी बात रखी। श्री रमाकांत बेंजवाल जी ने बताया कि क्रिया पदों के दृष्टिकोण से गढ़‌वाली भाषा पर्याप्त समृद्ध है किंतु कुछ कमजोरियों की ओर भी उन्होंने संकेत किया । उदाहरणार्थ- राजनीति, व्यापार इत्यादि क्षेत्र गढ़‌वालियों के व्यवसाय न होने से इन क्षेत्रों के कई शब्द गढ़‌वाली में नहीं है। इसी प्रकार श्री वीरेंद्र सिंह जी ने संज्ञाओं के क्रियाओं में परिवर्तन को गढ़वाली भाषा की खूबसूरती बताया तथा उन्होंने हिंदी भाषा के क्रिया-रूपों के साथ गढ़वाली भाषा के क्रिया-रूपों की समानता भी प्रदर्शित की।



तृतीय सत्र में सुर सम्राट श्री नरेंद्र सिंह नेगी जी की गरिमामयी उपस्थिति में शोधार्थियों (तरुण नौटियाल, पी.अंजलि, अभिषेक राठौड़, राजेंद्र, रेशमा पंवार, शैलजा आदि) ने विशेषज्ञों के सम्मुख अपने प्रश्न रखे।उपस्थित भाषाविदों ने पूरी गंभीरता के साथ उनके एक-एक प्रश्न का समुचित निराकरण किया । अंत में श्री नरेंद्र सिंह नेगी के अध्यक्षीय उद्बोधन ने मानो कार्यशाला में चार चाँद लगा दिए । श्री नेगी जी ने स्पष्ट रूप से कहा कि मानकीकरण के डंडे से साहित्य-सृजन और साहित्य-लेखन की प्रक्रिया रूकनी नहीं चाहिए। साथ ही युवा पीढ़ी में भाषायी चेतना के जागरण की आवश्यकता पर कार्य करना चाहिए । तृतीय सत्र की समाप्ति के पश्चात् गढ़वाली कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें गढ़वाली भाषा के कई कवियों तथा विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने अपनी कविता का पाठ किया।  कवि सम्मेलन का समापन श्री नेगी जी की संगीतमयी कविता से हुआ।

कार्यशाला के द्वितीय दिवस के प्रथम सत्र की अध्यक्षता श्री मदनमोहन डुकलान जी ने की। इस सत्र के मुख्य वक्ता श्री गिरीश सुंदरियाल जी ने 'गढ़वाली भाषा एवं व्याकरण' विषय पर अपना व्याख्यान दिया । उन्होंने भाषा के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण पहलुओं को उजागर किया-घरों में भाषा का मौखिक प्रयोग, पुख्ता प्रमाणों के साथ लिखित साहित्य का दस्तावेजीकरण, लिखित साहित्य की गुणात्मक समीक्षा, भाषायी संरक्षण हेतु दबाव समूह की जरूरत आदि । इसके साथ ही अव्यय, उपसर्ग तथा प्रत्यय के माध्यम से गढ़वाली भाषा की विराट शब्द-संपदा का साक्षात्कार करवाना इस सत्र के वक्तव्य की प्रमुख उपलब्धि थी। अध्यक्षीय संबोधन में श्री मदनमोहन जी ने गढ़‌वाली भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने हेतु इस दो दिवसीय कार्यशाला को मील का पत्थर माना

दूसरे सत्र को श्री आशीष सुंदरियाल जी ने ‘समास, रस, अलंकार' विषय पर संबोधित किया। अपने संबोधन में उन्होंने गढ़वाली भाषा-साहित्य के उदाहरणों के माध्यम से 'समास', 'रस' तथा अलंकार की दृष्टि से गढ़वाली की उत्कृष्टता को समझाया। इसके अतिरिक्त अपने विषय से इतर आशीष सुंदरियाल ने यूनेस्को, साहित्य अकादमी, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 तथा भारतीय भाषा सर्वेक्षण 2013 जैसे प्रतिष्ठानों एवं प्रामाणिक दस्तावेजों के संदर्भों से 'गढ़वाली भाषा' की आठवीं अनुसूची की भाषा की दावेदारी का समर्थन किया। सत्र के अंत में अध्यक्ष श्री एम. एस. रावत जी ने अपने अध्यक्षीय उद्‌बोधन में कार्यशाला के संचालकों, आयोजकों तथा प्रतिभागियों को शुभकामनाएँ प्रेषित कीं। 


इस कार्यशाला की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह भी रही कि इसमें तीन गढ़वाली भाषा की पुस्तकों का विमोचन भी हुआ। पहले दिन श्री गिरीश सुंदरियाल जी की ‘गढ़वाल की लोकगाथाएँ’, दूसरे दिन श्री विष्णुदत्त कुकरेती जी की 'नाथ परंपरा' पर आधारित पुस्तक तथा डॉ. प्रीतम अपछियाण की 'गीतूं की बरात मां' पुस्तक का विमोचन हुआ। ये तीनों पुस्तकें तथा तीनों लेखक गढ़‌वाली भाषा-साहित्य की अमूल्य विरासत  हैं। 

दूसरे दिन के अंतिम सत्र के पश्चात् प्रतिभागियों ने अपने विचार तथा सुझाव रखे। अंत में मुख्य अतिथियों के द्वारा प्रतिभागी शोधार्थियों को प्रमाणपत्र वितरण के साथ कार्यशाला संपन्न हुई।

दो दिवसीय कार्यशाला में मंच संचालन श्री गणेश खुगसाल गणी जी द्वारा किया गया। कार्यक्रम के दौरान कई भाषाविद, शिक्षक तथा गढ़वाली भाषा प्रेमी मौजूद रहे ।


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