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सनातन धर्म, मानव चेतना का प्राण तत्व-बीना नयाल

सनातन धर्म

सनातन का अर्थ है शाश्वत, सत्य, नित्य और अविनाशी और धर्म से तात्पर्य नियमों और व्यवहारों के उसे समुच्चय से है जिनकी धारणा से व्यक्ति सांसारिक जीवन में कर्म करते हुए, नाना प्रकार के सुख भोगते हुए आत्मिक विकास की यात्रा करता है।

जहां पंच तत्वों से निर्मित यह देह प्रकृति के समान अनित्य और परिवर्तनशील है , वही आत्मा और  परमात्मा नित्य, शाश्वत और परम सत्य है।

सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा,  दान, जप, तप,  ध्यान, यम, नियम आदि सनातन धर्म के मूल सिद्धांत है । इन सिद्धांतों के अंतर्गत नियमों और व्यवहारों का अनुकरण कर सांसारिक जीवन को सुखमय बनाकर आत्मा को विकास की उच्चतम अवस्था तक ले जाना ही सनातन धर्म का उद्देश्य है।

सनातन कोई विशेष धर्म मात्र न होकर व्यापक अवधारणा है । यह तो वसुधैव कुटुंबकम की व्यापक विचारधारा पर आधारित ऐसा मूल है जिसमें से कालांतर में अनेक संप्रदाय, मत, मतांतर आदि का प्रादुर्भाव हुआ।  दूसरे शब्दों में यह एक स्रोत की भांति है जिसका कभी अंत नहीं होता जो नित्य प्रवाहमान है जिसमे से  हिंदू धर्म,  बौद्ध धर्म , ईसाई धर्म जैन धर्म,सिख धर्म आदि के रूप में विविध धाराएं प्रवाहित हो रही है। यही धाराएं आगे चलकर विभिन्न सभ्यताओ और संस्कृतिओ का निर्माण कर रही है।

जीवन यात्रा का मूल उद्देश्य सांसारिक क्षेत्र में विकास के साथ साथ आत्मिक विकास भी है।  विकास की यह गति दोहरी है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पृथ्वी तथा अन्य ग्रह अपने अक्ष में घूर्णन के साथ साथ सूर्य की भी गति कर रहे हैं । सनातन धर्म व्यक्ति की दोहरी विकास यात्रा में सहायक, मार्गदर्शन तथा उसकी आत्मा से अभिन्न है।

यही वैदिक उद्घोष है जो एक ब्रह्म की धारणा पर आधारित है और जिसमें मानव को देवत्व के स्तर पर ले जाने का सामर्थ्य है । हमारे आदर्श तथा अनुकरणीय देवी देवताओं ने इसी सनातन धर्म का अक्षरशः पालन कर मोक्ष की प्राप्ति की । मनुष्य की जन्म-जन्मांतर की यात्रा भी सनातन का अवलंबन कर मोक्ष की ही तो यात्रा है।

आत्मा का परमात्मा से संबंध सहज, नित्य और स्वयं प्राप्त है परंतु हमें इसका बोध नहीं है।  प्रकृति इन दोनों के मध्य सेतु रूप मे सहयोगी की भूमिका का निर्वाह कर रही है। सनातन धर्म में जितने भी नियम,  सिद्धांत दिए गए हैं वे शारीरिक शुद्धि से मनसा ,वाचा कर्मणा की शुद्धि की सहज यात्रा से होकर प्रकृति के शुद्धिकरण तक जाते हैं । जैसे-जैसे व्यक्ति इन नियमों का आत्मसात करता है और अभ्यास में पारंगत होते जाता है शनैः शनैः प्रकृति से पार होकर आत्मज्ञान और फिर ब्रह्म ज्ञान के स्तर पर पहुंचना सहज हो जाता है।

वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित सनातन धर्म में प्रत्येक व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने-अपने वर्णाश्रम में निर्धारित नियमों का जिसे स्वधर्म कहा गया है का पालन कर आत्मिक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो।  वेदों में जिस सनातन व्यवस्था का उल्लेख किया है वह व्यक्ति के कल्याण से लेकर वसुधैव  कुटुम्बकम की अवधारणा को समेटे हुए बेहद व्यापक है लेकिन मनुष्य ने अपनी स्वार्थी लालची  प्रवृति के वशीभूत होकर कालांतर में इसमे फेर बदल कर समाज को भेदभाव के आधार पर बांटने का प्रयत्न किया जिससे समाज में छुआछूत , लैंगिक तथा जातिगत विषमताओं के साथ निम्न वर्गों  का उत्पीडन आदि समाहित होते चले गए और आगे चलकर सनातन में से सहूलियत के अनुसार अनेक संप्रदायों द्वारा विभिन्न धर्मो का प्रादुर्भाव हुआ।

यह दुर्भाग्य की बात है कि वर्तमान समय में सनातन धर्म विभिन्न विचारधाराओं के मध्य रस्साकशी का खेल सा बन गया है जिसका उद्देश्य संकीर्ण स्वार्थ की पूर्ति भर करना है।  यही लोग सनातन धर्म की छवि खराब करने के लिए उत्तरदायी है । ये भूल गए हैं कि सनातन हमारे अस्तित्व के लिए है ना कि हमसे सनातन का अस्तित्व । वे तो इस विस्तारित ब्रह्मांडिय व्यवस्था के सूक्ष्म अंश मात्र है जिनका भौतिक अस्तित्व मुट्ठी भर राख के अतिरिक्त कुछ नहीं है और आत्मिक अस्तित्व का बोध ना होने के कारण ही यह सनातन को मोहरा बनाकर अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं।

सनातन धर्म वाद-विवाद का नहीं अनुभव करने का तत्व है, जिसके लिए सर्वप्रथम बुद्धि के संकीर्ण  आवरणो को हटाकर साक्षी भाव से देखने की दृष्टि विकसित करनी होगी । यह आत्मभूति का माध्यम है जिसमें भोगों से ऊपर उठकर आत्मा के तल पर पहुंचकर ही इसका रसास्वादन कर परमानंद की प्राप्ति की जा सकती है।

बिना नयाल 


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