नई दिल्ली : प्रकृति के सुकुमार कवि’ सुमित्रानंदन पंत की 125 वीं जयंती पर 20 मई 2025 को दिल्ली के उत्तराखंड सदन में उत्तराखंड फिल्म एवं नाट्य संस्थान की ओर से आयोजित महाकवि सुमित्रानंदन पंत जयंती समारोह में वरिष्ठ पत्रकार डॉ. हरीश चंद्र लखेड़ा को उत्तराखंड साहित्य रत्न सम्मान से सम्मानित किया गया।
समारोह के मुख्य अतिथि व उत्तराखंड सरकार के मीडिया सलाहकार समिति के अध्यक्ष डॉ. गोविंद सिंह और उत्तराखंड फिल्म एवं नाट्य संस्थान की संस्थापक निदेशक संयोगिता ध्यानी ने संयुक्त रूप से डॉ. लखेड़ा को सम्मानित किया।
ज्ञातव्य हो कि उत्तराखंड फिल्म एवं नाट्य संस्थान 2015 में अस्तित्व में आने के समय से ही सामाजिक सरोकारों को लेकर कार्यरत है। खासतौर पर उत्तराखंड की महान विभूतियों को स्मरण करने के लिए कार्यक्रम आयोजित करती है। इसके तहत 15 फरवरी को कुली बेगार प्रथा के उन्मूलन के महानायक कुमाऊं केसरी बद्रीदत्त पांडे की जयंती मनाई जाती है। इसी तरह हर साल 20 मई को राष्ट्रकवि सुमित्रानंदन पंत की जयंती तथा 8 अगस्त को वीरांगना तीलु रौतेली की जयंती मनाई जाती है। इसके अलावा 25 दिसंबर को पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जयंती मनाई जाती है।
महाकवि सुमित्रानंदन पंत की जयंती के अवसर पर उत्तराखंड के प्रतिष्ठित साहित्यकारों को उत्तराखंड साहित्य रत्न सम्मान से सम्मानित किया जाता है। उत्तराखंड फिल्म एवं नाट्य संस्थान से अब तक 9 साहित्यकारों को सम्मानित किया जा चुका है। डॉ. लखेड़ा इस क्रम में दसवें साहित्यकार-पत्रकार हैं। हालांकि वे मूलत: पत्रकार है और उनकी 6 पुस्तके भी सामने आ चुकी है । इनमें से दो कविता संग्रह हैं। एक पुस्तक उत्तराखंड राज्य आंदोलन के इतिहास पर आधारित है । एक पुस्तक उनके अपने लखेड़ा वंश का इतिहास पर है एवं एक उनके शोध ग्रंथ पत्रकारिता का स्थानीयकरण पर है। इसके अलावा एक पुस्तक संसदीय पत्रकारिता पर है। विशेष बात है कि यह पुस्तक संसद की रिपोर्टिंग करने वाले किसी भी पत्रकार की लिखी पहली पुस्तक है। और इसका नाम है संसदीय पत्रकारिता- भारतीय लोकतंत्र की यात्रा के साक्षी144 स्तंभ।
आप जानते ही हैं कि प्रकृति के सुकुमार कवि’ सुमित्रानंदन पंत का जन्म बागेश्वर ज़िले के कौसानी (वर्तमान उत्तराखंड) में 20 मई 1900 को हुआ। बचपन में उनका नाम गोसाईं दत्त रखा गया था। प्रयाग में उच्च शिक्षा के दौरान 1921 के असहयोग आंदोलन में महात्मा गाँधी के बहिष्कार के आह्वान पर उन्होंने महाविद्यालय छोड़ दिया और हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अँग्रेज़ी भाषा-साहित्य के स्वाध्याय में लग गए। उनकी काव्य-चेतना का विकास प्रयाग में ही हुआ। उनका रचनाकाल 1916 से 1977 तक लगभग 60 वर्षों तक विस्तृत है।
बहरहाल, दिल्ली स्थित उत्तराखंड सदन में हुए इस कार्यक्रम में डॉ. गोविंद सिंह के अलावा हिंदी अकादमी और गढ़वाली कुमाऊनी जौनसारी अकादमी के पूर्व सचिव व वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. हरि सुमन बिष्ट, वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश जुगराण व आरपी ध्यानी, साहित्यकार रमेश घिल्डियाल, गीतकार और रंगकर्मी डॉ. सतीश कालेश्वरी, साहित्यकार व रंगकर्मी दर्शन सिंह रावत, युवा कवि नीरज बावड़ी समेत समाज के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित व्यक्ति उपस्थित थे।
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