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गांव जो कभी हमसे दूर नहीं होते और हमें जोड़े रखते हैं अपनी जड़ों से

 


मेरा गांव उत्तराखंड

बाय बाय गांव..  

वापस शहर जा रहा हूं..  

(कुछ तो खास है हमारे उत्तराखण्ड में, हमारे पहाड़ो में, हमारे गांव में.. जो सैकड़ों किलोमीटर दूर चले जाने पर भी आसपास से ही रहते हैं.. हर पल यादों में रहते हैं, ख्यालों में रहते हैं

इन खूबियों पर आधारित मेरी चंद लाइनें.. 

लंबे समय बाद शहर छोड़, कुछ दिनों के लिए पहाड़ आया.. 

दिन कब महीनों में बदल गए, यह समझ में ही नहीं आया.

पहाड़ आकर मैंने खुद को, फिजूल के बंधनों से मुक्त पाया.. 

पहली बार खुद को, इतना बेफिक्र और खुशमिजाज पाया.. 

कंक्रीट के माया जाल से निकल, खुद को प्रकृति के पास पाया.. 

दूसरों के लिए जीते थे शहर में, गांव को खुद के लिए जीते पाया.. 

लंबे समय बाद शहर छोड़, कुछ दिनों के लिए पहाड़ आया.. 

हाय हेलो की रट से हट, कुछ दिनों नमस्कार-प्रणाम सुनने में आया.. 

हेल्लो सर हाय ब्रो से हट, कुछ अलग ही कन छो भुल्ला-भैजी सुनने में आया.. 

अंकल आंटी डियर से हट, दीदी-काकी काका-ब्वाडा जैसा नाता लगाया.. 

तुलनात्मक रिश्तों से हट, खुद को संस्कारी रिश्तो के करीब पाया.. 

लंबे समय बाद शहर छोड़, कुछ दिनों के लिए पहाड़ आया.. 

धूल-धुएं से ढके शहर से निकल, प्रकृति के और करीब आया.. 

पेड़-पौधों को भी यहां, हराभरा और खिलखिलाते पाया.. 

हवा भी मदमस्त और पानी में भी अलग ही स्वाद आया.. 

लंबे समय बाद शहर छोड़, कुछ दिनों के लिए पहाड़ आया.. 

शहर के आलीशान मकान से ज्यादा, गांव का आंगन मन को भाया.. 

शहर में घर पर घर के ही न मिले, यहां पूरा गांव मिलने को आया.. 

सच कहूं तो पहली बार, खाने में भी ऐसा जायका आया.. 

खा-पीकर हाथ धोने पर भी, खुद को उंगलियां चाटते पाया.. 

लंबे समय बाद शहर छोड़, कुछ दिनों के लिए पहाड़ आया.. 

शोर मचाते शहर से दूर, कुछ महीनों एकांत में खुद को पाया.. 

पहली बार सोफे से ज्यादा, फर्शबंदी में बैठने में मजा आया.. 

तिबरी-चौके, पगडण्डी तो कभी, खेतों में बेफिक्र टहलकर आया.. 

पंदेरे-ढंडी, गाड़-गदेरे में तो कभी डांडा डिग्गी में नहाकर आया.. 

प्रकृति की गोद में बैठ कर भूल गया, मैं शहर की सब मोह माया.. 

लंबे समय बाद शहर छोड़, कुछ दिनों के लिए पहाड़ आया.. 

सांझ ढलते ही पंछियों ने चहचहाना बंद कर घोसलों में डेरा जमाया.. 

रात की आगोश में कीट पतंगों ने अपना अलग ही तराना गाया.. 

गांव आकर मैंने ना कोई सीरियल ना कभी समाचार लगाया.. 

सूर्य उदय पर भजन तो सूर्य अस्त पर पहाड़ी गीत गुनगुनाते पाया.. 

लंबे समय बाद शहर छोड़, कुछ दिनों के लिए पहाड़ आया.. 

दिन कब महीनों में बदल गए, यह समझ में ही नहीं आया..  

लंबे समय बाद शहर छोड़, कुछ दिनों के लिए पहाड़ आया.. 

बाय-बाय गुड बाय गांव.. मैं वापस शहर जा रहा हूं..

यादों के पिटारे में गांव को अपने साथ ले जा रहा हूं..! 

बाय-बाय गुड बाय गांव.. मैं वापस शहर जा रहा हूं..!! 


सन्तोष ध्यानी 

ग्रामसभा : बनगढ़ (बमँणुगाँव) 

पो०ओ० टकोलिखाल, रिखणीखाल, 

पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड 

919811791928

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