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उत्तराखंड में तिब्बती चिकित्सा प्रचलन व इतिहास-भीष्म कुकरेती

 
तिब्बती चिकित्सा
फोटो आभार भीष्म कुकरेती 

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  

लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ ) 

समस्त उत्तराखंड का उत्तरी भाग तिब्बत सीमा से सटा है और सदियों से तिबत व उत्तराखंड के राजाओं का सीमा विवाद चलता रहता था किन्तु दोनों क्षेत्रों के व्यापारिक, सांस्कृतिक संबंध कभी बंद नहीं हुए।  1962 के चीनी आक्रमण पश्चात तिब्बत से संबंध समाप्त हुए। गढ़वाल व कुमाऊं के उत्तरी भागों में भोटिया जाती तिब्बती मूल के हैं और तिब्बत के साथ वाणिज्य माध्यम का कार्य सहस्त्र वर्षों से करते आ रहे हैं।  भोटियों ने गढ़वाल-कुमाऊं व हिमाचल को तिब्बती चिकित्सा पद्धति भी दी व कई  औषधि निर्माण पद्धति /ज्ञान भी उत्तराखंड को भोटियाओं द्वारा प्राप्त हुआ। बद्रीनाथ ,हेमकुंड , उत्तरकाशी , पिथौरगढ़ जोहर आदि स्थानों में अन्वेषकों, पर्वतारोहियों, यात्रियों को भोटिया जन तिब्बती पद्धति से चिकित्सा भी प्रदान करते थे।  गढ़वाली सेना को तिबत व नीति-माणा  में तिब्बती पद्धति की चिकित्सा सुलभ थी। पर्यटकों को चिकित्सा प्रदान करने में तिब्बती चिकित्सा का भी हाथ रहा है।  कई तिब्बती चिकित्सा पद्धति ग्रामीण उत्तराखंड चिकित्सा पद्धतियों के साथ इस तरह मिल गयी हैं कि यह पता लगाना कठिन है कि कौन सी पद्धति तिब्बती है और कौन सी निखालिश कुमाउँनी या गढ़वाली पद्धति है।  आयुर्वेद ने भी भोटिया व्यापारियों द्वारा तिब्बती चिकित्सा पद्धति को प्रभावित किया किन्तु अब इन्हे पहचानना कठिन ही है। अतः मेडिकल टूरिज्म इतिहास की दृष्टि से तिब्बती चिकित्सा इतिहास भी महत्वपूर्ण है और तिब्बत के प्रसिद्ध चिकित्स्कों का ज्ञान भी प्रासंगिक हो जाता है। 

बोन चिकित्सा पद्धति 

कहा जाता है कि तिब्बती चिकित्सा पद्धति दुनिया की प्राचीनतम पद्धतियों में से एक है।  इसे बोन चिकित्सा पद्धति भी कहते हैं जो बौद्ध धर्म  प्रसारण युग से पहले तक प्रचलित थी। बॉन चिकित्सा पद्धति की पोथी 'जाम -मा त्सा ड्रेल ' (200 BC ) में रची गयी थी जिसमे वेदों व चिकत्सा वर्णन है ।  

बुद्ध सांख्यमुनि (961 -881 BC )

सांख्य मुनि ने तिब्बत में बौद्ध धर्म प्रचार किया और सांख्य मुनि क्र बौद्ध प्रवचनों ने बोन  चिकित्सा पद्धति को प्रभावित किया व चिकित्सा पद्धति में बुद्ध के चार अपरिवर्तनीय विचार व 6 सिद्धियों  सिद्धांतों का प्रवेश हुआ। 

 ल्हा थोथोरी (245 -364 AD )

जनश्रुति व यूथोक की नामथार अनुसार भारतीय मूल के दो चिकित्स्क भाई बहिन बिजी  गजे व बिली गजे तिबती राजा युल  पेमा नयिंगपो के चिकित्सक थे।  दोनों ने तक्षशिला जाकर आयुर्वेदाचार्य आत्रेय से चिकित्सा विज्ञान सीखा।  फिर दोनों ने चीन , नेपाल , चीन के पूर्वी तुर्किस्तान की यात्रा की।  दोनों ने मगध में कुमार जीविका से अतिरिक्त  चिकित्सा शिक्षण ग्रहण की। 

बज्रासन में आर्य तारा ने उन्हें तिब्बत जाकर चिकत्सा सिखलाने हेतु तिब्बत भेजा व राजा ने बिजे  का विवाह अपनी बेटी इदकी रोल्छा (जो बाद में चिकित्स्क हुईं ) से की।  बिजे गजे व बिली गजे ने लोगों की चिकित्सा ही नहीं की अपितु कई शिष्यों को चिकित्सा शिक्षा भी दी।  जनश्रुति अनुसार बिजी  गजे व बिली गजे चंदन के वनों में निवास करते हैं। 

डंग गी थ्रोचोंग (चौथी सदी)

बिजी गजे व रोलचा का  पुत्र या डंग  गी  थ्रोचोंग  महान चिकित्सक था व वह अपने नाना का व्यक्तिगत चिकित्सक भी था।  डंग गी थ्रोचोंग ने युवापन में ही अपने पिता से नाड़ी जांचने ,औषधि विज्ञान , रक्तचाप , रक्त रोकने व घाव विज्ञान सीख लिया था। डंग गी थ्रोचोंग की पीढ़ियों में कई चिकित्सक हुए।  डंग थ्रोचोंग की एक पीढ़ी में यूथोंग योंतेन गोनपो महान चिकित्स्क हुए व योंतेन की कई पीढ़ियों ने राजचिकित्स्क का पद संभाले रखा। 

धर्म राजा सौंगतसेन गैम्पो (617 -650)

33 वें राजा सौंगतसेन गैम्पो ने भारत से चिकित्स्क भारद्वाज ; ईरान से गालेनोज व चीन से हांग वान हांग डे  चिकित्स्कों को तिब्बत बुलाया व उनसे अपना चिकित्सा ज्ञान तिब्बत के चिकित्सकों को देने की प्रार्थना की।  प्रत्येक ने अपने ज्ञान पर लेख  लिखे जो बाद में 'मिजिग्पे -त्सोंचा ' (डरविहीन हथियार ) नाम से पुस्तक में संकलित किये गए। 

चीनी व भारतीय चिकित्स्क तो अपने देश लौट गए किन्तु ईरानी चिकित्स्क गालेनोज तिब्बत में रहा और उसने कई चिकित्सा पुस्तकें रचीं. राजा की चीनी रानी भी चीन से एक चिकित्सा पोथी लायीं और उसका तिब्बती में अनुवाद करवाया। 

धर्म राजा त्रिसौंग देवोत्सेन (742 -797 ई )

धर्म राज देवोत्सेन ने ईरान , भारत , चीन , नेपाल व पूर्वी तुर्किस्तान के चिकित्स्कों का प्रथम सम्मेलन सामये बुलवाया . तिबत का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ बृद्ध युथोंग गोनपो  ने किया।  सम्मेलन में चिकित्सा सबंधी वार्ताएं हुईं। 

युथोंग योन तेन गोनपो (708 -833 ई )

चिकित्स्क परिवार में जन्मे वरिष्ठ युथोंग ने चिकित्सा शिक्षण हेतु  हेतु कई बार भारत की यात्रा की व , चीन की भी यात्रा की।  युथोंग गोनपो ने सन 763 ई  में तिब्बत का प्रथम चिकित्सा शिक्षण संसथान 'तनाडग ' की स्थापना की। 

लोचेन रिनचेन सांगपो (958 -1056 ई )

लोचेन रिनचेन सांगपो  ने कश्मीर की यात्रा की और आयुर्वेद के अष्टांग की शिक्षा शाली होत्र से प्राप्त की । लोचेन रिनचेन सांगपो ने अष्टांग का तिब्बती में अनुवाद किया औरतिब्बति चिकित्सा में नया अध्याय जोड़ा। 

कनिष्ठ युथोंग योनतेन गोनपो (1126 -1202 )

गोनपो चिकित्स्क परिवार में जन्मे कनिष्ठ युथोंग योनतेन गोनपो  युवा होने से पहले ही चिकित्सा शास्त्र में पारंगत हो गया था। अठारह वर्ष के कनिष्ठ युथोंग योनतेन गोनपो  ने छह बार भारत यात्रा की और डाकिनी पाल्डेन त्रिंगवा व चरक से अतिरिक्त चिकित्सा विद्या प्राप्त की। 

कनिष्ठ युथोंग योनतेन गोनपो ने चिकित्सा शास्त्र पर कई पुस्तकें रचीं और 300 शिष्यों  (जिनके नाम तिब्बती चिकित्सा साहित्य में उपलब्ध हैं ) को चिकित्सा ज्ञान दिया। 

जंगपा नाम्यागल द्रासंग ( 1395 -1475 )

जंगपा नाम्यागल द्रासंग  ने दस साल में भारतीय सूत्र व सिद्धांतों में सिद्धि प्राप्त कर ली थी। जंगपा नाम्यागल द्रासंग ने 11 चिकित्सा पुस्तक रचे और जंगपा चिकित्सा पद्धति की स्थापना की। 

रीजेंट सांगे गियेतसो (1653 -1706 )

पांचवें दलाई लामा के रीजेंट रीजेंट सांगे गियेतसो  ने ह्यूमन एनोटॉमी के कई सूत्रों का संपादन किया व ल्हासा में चिकित्सा विद्यालय की स्थापना की। ज्योतिष पुस्तक के अतिरिक्त रीजेंट सांगे गियेतसो  ने तिब्बती चिकित्सा इतिहास भी संकलित किया व कई पुस्तकें रचीं। 

खेनरब नोरबू (1883 -1962 )  योगदान  संरक्षण व  आदरणीय है। 

वर्तमान दलाई  लामा 

तेरहवें दलाई लामा ने तिबत में मेन त्सी खांग चिकित्सा संस्थान की स्थापना की थी वर्तमान दलाई लामा व अन्य चिकित्सकों  ने इस संस्थान को 1961  में भारत में पुनर्जीवित किया और संस्थान की कई शाखाएं दिल्ली अमेरिका में खोलीं। 

भोटिया समाज का चिकित्सा योगदान 

भोटिया समाज  कई जड़ी बूटियां सदियों से निर्यात करते आये  हैं व तिब्बती पद्धति का प्रचार भी करते आये हैं। इसके अतिरिक्त उत्तरकाशी में भी हिमाचली भोटिया चिकत्सा तिब्बती चिकित्सा प्रदान करते आये हैं।

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