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नवप्रवर्तन का संदेश देता ऋतुराज वसंत

 

बसंतोत्सव

बीना नयाल

मानव जीवन की भांति प्रकृति में भी ऋतुओ के माध्यम से परिवर्तन का सुनियोजित कालचक्र है। पतझड़ के पश्चात वसंत ऋतु का आगमन मात्र ऋतु परिवर्तन न होकर प्रकृति का धरती और मनुष्य को सर्वोत्तम उपहार है। वसंत को ऋतुराज की संज्ञा दी गई है क्योंकि वसंत ऋतु में प्रकृति अपने सौंदर्य और चेतना के सर्वोच्च शिखर पर होती है । पृथ्वी का रोम-रोम पुलकित हो उठता है ।जब किसी पदार्थ में समाहित ऊर्जा अपने श्रेष्ठतम स्तर पर होती है तो वह पदार्थ को अद्भुत  आभामंडल प्रदान करती है । बसंत ऋतु में प्रकृति अपनी उर्जा के सर्वोत्तम शिखर स्तर पर होती है ।ऊर्जा का सर्वोत्तम रूप सृजन से लेकर चेतना दोनों ही स्तरों में प्रस्फुटित होता है ।शीतकाल के उदास पतझड़ में जब प्रकृति में विरानगी और सूनापन प्रदर्शित होता है उसके पश्चात वसंत नवसृजन के माध्यम से प्रकृति और जीवन में उत्साह और उमंग का संचार करती है। सृजन भी इतना अलौकिक और अद्भुत जैसे प्रकृति ने अपनी संपूर्ण सामर्थ्य और चेतना का प्रयोग कर चित्रकार की भांति कण-कण को विलक्षण रंगों से परिपूर्ण कर दिया है। प्रकृति के अंग प्रत्यंग सृजन के लिए आतुर हो जाते हैं और सौंदर्य की अलौकिक धारा फूट पड़ती है। सरोवरों में कमल खिलना, रंग-बिरंगे पुष्पों से धरती का श्रृंगार , कीट पतंगों का मधुर स्वर ,पक्षियों के प्रवास का समाप्त होना और आकाश में उन्मुक्त वातावरण में विचरण करना , चांद और तारागण का अप्रतिम सौंदर्य और धरती पर मनोहारी छटा, सूर्य का उत्तरायण होकर निर्माण में सहायक और अग्रिम भूमिका से प्रतीत होता है मानो प्रकृति बसंत का स्वागत करने के लिए व्याकुल है। बसंत के देवता भगवान श्री कृष्ण माने गए हैं जिनमें ज्ञान, बुद्धि ,विवेक, प्रसन्नता , सत्त्व तथा मोक्ष जीवन के सभी आयाम समाहित है । गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संदेश दिया मैं ऋतुओ में वसंत हू ।

प्रकृति जब चेतना और ऊर्जा के सर्वोच्च शिखर में होती है उस दौरान अलौकिक शक्तियों और चैतन्य पदार्थो का प्रकृति की ओर आकर्षण सहज व स्वभाविक है। वसंत ऋतु धरती में ही  नहीं मानव जीवन में भी नवप्रवर्तन का सूचक है। मानव जीवन का उद्देश्य उर्जा के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच कर स्वयं को सर्वोत्कृष्ट रूप से अभिव्यक्त करने के लिए है ।जीवन में परिस्थितियां सदैव परिवर्तित हैं । सुख के अतिरेक मे पहुंचने के बाद दुख भी सहज और स्वाभाविक है लेकिन इसे मानव जीवन का विधान मानते हुए सुंदर और उत्कृष्ट सृजन  की ओर अग्रसर होना चाहिए । मानव सभ्यता का अतीत यही शिक्षा देता है कि जिसने जीवन में वसंत के मर्म को समझ लिया वह स्वयं के भीतर समाहित अलौकिक ऊर्जा का प्रयोग जीवन के सर्वोत्तम निष्पादन के लिए करेगा।

वसंत का महत्व हर वय के व्यक्ति के लिए है । विद्यार्थियों के लिए ज्ञान के सर्वोत्तम आयाम को ग्रहण कर नवीन ज्ञान का निर्माण और समझ का विकास करना है। गृहस्थो के लिए बसंत प्रेम के विशुद्ध तत्व को आत्मसात कर सृष्टि की बेहतरी के लिए उत्कृष्ट सृजन करना है तो वही वानप्रस्थियों के लिए जीवन की पतझड़ रूपी अवस्था में ज्ञान व विवेक के माध्यम से आत्म तत्व को आत्मसात कर शरीर को नवीन परिवर्तनों के लिए तैयार करना और सूखे पत्तों की भांति माटी में पुनः अंकुरित होने के लिए समाहित होने से पूर्व अपनी संपूर्ण ऊर्जा को  लोकोपकारी कार्य में व्यय कर आत्म संतुष्टि का भाव पैदा करना है ।

प्रकृति में शिव और शिवा के रूप में जो सर्वोत्कृष्ट और सुंदरतम है वही मनुष्य के भीतर है ।यदि प्रकृति वसंत के माध्यम से स्वयं को पूर्ण करती है और देवत्व का आव्हान करती है तो मनुष्य रूप विवेकशील प्राणी भी ज्ञान व योग बल से चेतना के शिखर पर पहुंचने का प्रयास करें और प्रत्येक परिस्थितियों में तटस्थ भाव से  सदैव वसंत की भांति प्रफुल्लित और सुवासित रहे । जिस हृदय मे सदैव बसंत रहता है वहां गोविंद का वास होता है और ऐसे हृदय को जीवन रूपी दैहिक ,दैविक और भौतिक ताप उद्विग्न नहीं करते।

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