उत्तराखंड के कुछ प्रसिद्ध गीत कब और कैसे बने जाने पत्रकार सीएस रावत की इस रिपोर्ट से
चंद्र सिंह रावत “स्वतंत्र”
इंदिरपुरम (गाजियाबाद)
कोई भी रचनाकार, कवि, गीतकार अपने आसपास घटित हो रही समसामयिक घटनाओं को आधार बनाकर कविता, गीत लिखते हैं और समाज को आईना दिखाने का कार्य करते हैं। कई अवसरों पर उन्हें सरकारी तंत्र, नेताओं, ठेकेदारों, असामाजिक तत्वों और अनेक माफिया सरगनाओं का कोपभाजन भी होना पड़ता है फिर भी वह समाज को जगाने और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए अपनी कलम की धार को पैनी बनाए रखते हैं। एक प्रकार से कहा जाए तो वह खुली आँखों से दुनिया को देखने का कार्य करते हुए समाज के सजग प्रहरी भी हैं। अपनी जान पर खेल कर वह जनता के सामने सच को लाने का साहस भी करते हैं। यही नहीं, सरकारों के दुष्कर्मों और विभिन्न कमियों पर अपनी दृष्टि फेर कर और उनकी स्तुति कर पुरुस्कारों के भी अधिकारी बनते हैं। इसी पर आधारित है एक छोटी सी रिपोर्ट।
(1) गढ़वाल क्षेत्र का एक प्रसिद्ध गीत है
सात समुंदर पार मि जाणो ब्वे,
जाज में जाणो कि ना।
जिकुड़ी उदास, जिकुड़ी उदास ब्वे,
जाज म जाण ब्वे, जरमन, फ्रान्स ब्वे।
जाज म जोंलूं कि ना।
इस गाने की रचना तब की गई थी जब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था और नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने के आह्वान के अवसर पर उत्तर प्रदेश के उत्तरापथ गढ़वाल क्षेत्र से एक नवयुवक द्वारा अपनी माँ से आजाद हिन्द फौज में भर्ती होकर समुद्री जहाज द्वारा जर्मनी, फ्रांस जाकर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ने की विनती है। किसके द्वारा यह लिखा गया इसका कोई लिखित उल्लेख नहीं है किंतु नरेंद्र सिंह नेगी ने इस गाने को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है।
(2) पतरोल : पारा का भीड़ा, कौछे घस्यारी, मालू रे तू मालू नि काटा।
घस्यारी : वारा का भीड़ा, मी छू घस्यारी, मालू रे तू मालू कटणि दे।
पतरोल : घास काटन पाप लगूँ छो, मालू रे तू मालू नि काटा।
घस्यारी : भैंसी ब्ये रैछो, थोरी है रैछों, मालू रे तू मालू कटणि दे।
1928-29 में टिहरी के राजा नरेंद्र ने अंग्रेजों की शह और सुरक्षा के नाम पर जंगलों की सीमाबंदी कर दी तथा जनता के पशु चराने, लकड़ी, घास काटने के सभी अधिकार समाप्त कर दिए। रियासत की तरफ से कहा गया कि जो भी अपने मवेशियों को जंगल में ले जाएगा उसे कठोर दंड दिया जायेगा। जनता ने कहा कि पशुओं को चराने के लिए कहाँ ले जाएं तब उन्हें कहा गया कि पशुओं को पहाड़ों से नीचे गिरा दें। 30 मई 1930 को रवांई परगना के निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी जिसमें दर्जनों लोग शहीद हुए। जान बचाने के लिए लोग जमुना नदी में कूद गए। जमुना का पानी भी शहीदों के खून से लाल हो गया। टिहरी के लोग आज भी इसे टिहरी के जलियाँवाला बाग कांड के नाम से जानते हैं। यह टिहरी के रवांई क्षेत्र की घटना है। इस गाने को हम बाल्यकाल से सुनते आ रहे हैं। स्कूलों में इसका मंचन भी किया जाता है जिसमें लड़का पतरौल और लड़की घस्यारी का अभिनय करती है।
(3)गरुड़ा भरती, कौसानी ट्रेनिंगा।
देशा कौ लीजिया, जान कैं दे दयूँला ॥
सात साला खिमुवा, ईस्कूला जाण हौलो।
बारा साला कमला सौरासे जाणि हौली॥
गरुड़ा भरती, कौसानी ट्रेनिंगा ।
यह गीत तब लिखा, सुना और गाया गया, जब चीन ने मित्रता की आड़ में भारत पर आक्रमण किया। तब उत्तर प्रदेश के कुमाऊँ क्षेत्र में यह गीत प्रचलित हुआ। जिसमें एक सिपाही जो भारत माता की सीमा पर तैनात अपने कर्तव्यपथ का बखूबी निर्वहन कर रहा है वह यह गाना गा रहा है। इस गीत को उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में खेल - कौथिगों में गाया/ बजाया जाता है। साधारणतया इस गाने को हुड़के की थाप पर गाया जाता है।
(4) नौछमी नारेणा, द्वारकाधीश कृष्ण की अंद्वार वेपरे।
राजनीति की पैनी धार वेपरे। चारगिशी बसंत बहार वेपरे।
जवानी की उलार वेपरे, उदमातो धनमातो जोवनमातो,
रूप को रसिया, फूलों की होसिया, नौछमी नारेणा।
2002 से 2007 की अवधि में कॉंग्रेस की तिवारी सरकार में जिस प्रकार से लालबत्तियों की बंदरबाँट हुई थी वह अपने आप में मिसाल है। इस पर विपक्ष ने सरकार पर हल्ला बोल दिया। तब सरकार ने इस गाने का वीडिओ तक प्रतिबंधित कर दिया। किंतु उत्तराखंड के गढ़गौरव नरेंद्र सिंह नेगी के इस गाने ने उत्तराखंड में सरकार की चूलें हिला दीं और तिवारी सरकार का कोपभाजन होना पड़ा। इस गाने को नरेन्द्र सिंह नेगी ने रचा और गाया।
(5) कमीशन की मीट – भात, रिश्वत को रैलो कमीशन की शिकार – भात, रिश्वत को रैलो
रिश्वत को रैलो रे
बस कर बंडी ना सपोड़, अब कथगा खैलयो
कथगा जि खैलयो रे
2010 में जब रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की सरकार थी और हरिद्वार में कुंभ मेला हुआ। उसी कुंभ मेले पर निशंक सरकार पर कई भ्रष्टाचार के आरोप लगे। यह गीत नरेंद्र सिंह नेगी के अद्भुत और अदम्य साहस के रचना शैली की याद दिलाते हैं। साथ ही उस ताकत का भी एहसास कराते हैं जो सत्ता पलटने का माद्दा रखते हैं। इस गाने को भी सरकार और निशंक के विरुद्ध मानकर इस पर रोक लगा दी गई। तब से जनता ने नरेंद्र सिंह नेगी में एक अलग ही चेहरे को देखा, जिसमें जनता के लिए चिंता थी।
(6)झन दिया बौज्यु, छाना बिलौरी, लागला बिलौरी का घामा हथे की दाथुली, हाथ मा रौली, लागला बिलौरी का घामा
नाके की नथुली, नाके मा रौली, लागला बिलौरी का घामा।।
बागेश्वर जिले में अल्मोड़ा से बागेश्वर जाने वाली सड़क पर छाना बिलौरी गाँव है। जो घाटी के ऊभरे हुए टीले पर बसा हुआ है। घाटी में होने के कारण यहां दिन में काफी गर्म होता है। लगभग आज से 75 वर्षों पूर्व कांडा के ठंडे इलाके से एक लड़की की शादी इस गाँव में होती है। कहते हैं कि उस लड़की की अपनी सास से नहीं पटी। तब वह झगड़कर अपने मायके चली गई। लोगों के पूछने पर उसने बताया कि वहां बहुत गर्मी पड़ती है इसलिए अब ससुराल नहीं जाऊंगी। उसने यह भी कहा कि कोई भी अपनी लड़की का व्याह छाना बिलौरी गाँव में न करें। तब किसी गीतकार ने छाना बिलौरी के घाम (गर्मी) पर एक गाना लिख दिया। बांसुरी वादक प्रताप सिंह और मोहन सिंह रीठागड़ी द्वारा इस लोकगीत को गाने के बाद खूब लोकप्रियता मिली। रेडियो पर पहली बार इस गाने को बीना तिवारी ने गाया। छाना बिलौरी के घाम को लेकर क्षेत्र में काफी कानाफूसी होने लगी और लोगों ने उस गाँव में लड़कियों का व्याह करना तक बंद कर दिया तब गोपाल बाबू गोस्वामी ने कुछ इस प्रकार से लिखा जो दुर्भाग्य से अधिक प्रचलन में नहीं आया।
छाना बिलौरी के भालो लागूँ, छाना बिलौरी को ज़्वाना।
ओ, दी दिया बाज्यु छाना बिलौरी, नि लगना बिलौरी को घामा।
झूठि यो कैले कै दे छू, खालि करौ बदनामा।।
दी दिया बाज्यु छाना बिलौरी, नि लगना बिलौरी को घामा।
(7)त्यर पहाड़, म्यर पहाड़, रौय दुखों को ड्यर पहाड़।
बुजुरगुलों लै ज़्वड पहाड़, राजनीति लै त्वड पहाड़।
ठ्यकदारों लै फवड़ पहाड़, नानतिनों लै छहवड पहाड़.
त्यर पहाड़, म्यर पहाड़, रौय दुखों को ड्यर पहाड़।।
उत्तराखंड के लोक कवि हीरा सिंह राणा ने इसे लिखा और खूब गाया। जनता ने इस गाने को हाथों हाथ लिया और खूब सराहना हुई। उत्तराखंड के जन्म के उपरांत पहाड़ से बेहिसाब पलायन, चरम पर भ्रष्टाचार और किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति से गुजरते हुए सरकारों के काम-काज की शैली पर तंज कसा है। उनकी बदनियती पर आक्षेप और कुठाराघात भी किया है। उत्तराखंड राज्य की परिकल्पना और उसकी हकीकत के आलोक में वह पहाड़ के अस्तित्व और स्वाभिमान के उन अर्थों को समझने की कोशिश भी कर रहे हैं। जिसे बनाने में पहाड़ की कई पीढ़ियाँ खप गई हैं। पृथक उत्तराखंड आंदोलन में हीरा सिंह राणा सदैव सक्रिय रहे हैं इसलिए उनकी पीढ़ा, उनका दर्द स्वाभाविक भी है।
(8) म्यर मानिले डानी, हम तेरी बल्याई ल्यूँला।
तू भगवती छै भवानी, हम तेरी बल्याई ल्यूँला।।
द्वी थानों का बीचों बीच, यौ रुपसा डानी।
एक मा सरस्वती रैछ, एक मा भवानी।। मलि पूजिया दुधातोली, जौरासी देघाट,
सराईखेत, स्यर - चनोली, स्याल्दे, यौ चौकोटा की फाट।
डानी सब त्यकणी चानी, हम तेरी बल्याई ल्यूँला।
इंटरा करौछ त्वीले “काठौ” को ईस्कूला।
“डिगरी कालेज” देवी ख्यलों हरौ झूला।
सब नान चै रई नानी, हम तेरी बल्याई ल्यूँला।
इस गीत के माध्यम से हीरा सिंह राणा माँ मानिला देवी से विनती करते हैं कि मानीला में अब महाविद्यालय होना चाहिए। अत: इस सरस्वती के मंदिर को जल्दी ही अपना आशीर्वाद दें और महाविद्यालय यहां पर बने। क्षेत्र के लोगों को उच्च शिक्षा मिले। हीरा सिंह राणा ने जब से होश संभाला तब ही से मानीला में शिक्षा के विकास हेतु कार्य करते रहे।
(9) सारै देशमा घानी बाजीगे, बाजीगे टना टन।
बीस सूत्री कार्यकरमा, धन इंदिरा धन।।
भूमिहीनों कैं जग मिलैली, भूक प्यासों कैं अन्न।
इंदिरा ज्यू को “समाजवाद” है रै जो सनातन।।
गरीबी हटाओ के अंतर्गत इंदिरा गांधी सरकार द्वारा 20 सूत्री कार्यक्रम की घोषणा 1975 में की गई थी। इस कार्यक्रम का मूल उद्देश्य पिछड़े एवं गरीब व्यक्तियों के जीवन स्तर में सुधार करना था। इसी कड़ी में हमारे पहाड़ के हरिजनों को भी तराई भाभर में बसाने की योजना बनाई गई। हमारे पड़ोसी गांवों के दो हरिजन भाई बुथाड़ी राम तथा बिगारी राम पुत्र फकीरी राम ग्राम हंसा भनेरिया तथा खिमा राम पुत्र बिगारी राम ग्राम कमेटपानी, जनपद अल्मोड़ा को भी ढिकुली/सूँगरखाल में बसाया गया। तराई भाभर में बड़े बड़े मच्छर और जंगली जानवरों के आतंक के कारण बूथाड़ी राम और बिगारी राम तो कुछ दिन रहने के बाद गाँव वापस आ गए किंतु खिमा राम वहीं पर रहे और आज भी उनका परिवार तराई भाभर में रह रहा है। वे अभी भी अपने गाँव आते जाते रहते हैं।
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