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उत्तरायण के पर्व पर विशेष : नव उत्साह और उल्लास का पर्व है उत्तरायण

 

उत्तरायण मकर सक्रांति

बीना नयाल

पौष मास की कंपकंपाती ठंड और शीतलहरों का सामना करने के पश्चात सूर्य का उत्तरायण होना निश्चित ही लोगों को सुकून देने वाला अवसर होता है। 14 जनवरी 2023 को सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश के साथ ही उत्तरायण का यह पर्व समूचे भारतवर्ष में धूमधाम से मनाया जाएगा।

उत्तरायण का यह पर्व सूर्य के मकर रेखा से कर्क रेखा की और पृथ्वी के संदर्भ में गति का प्रतीक है क्योंकि सूर्य तो स्थिर है लेकिन पृथ्वी सूर्य के चारों और निरंतर परिक्रमा कर रही है जिससे वर्ष में छह माह उत्तरायण और छह माह दक्षिणायन की स्थिति बनती है।

सूर्य का उत्तरायण होना अर्थात समस्त उत्तरी गोलार्ध में सौर ताप में उत्तरोत्तर वृद्धि होना जो मनुष्य में ऊर्जा की वृद्धि तथा चेतना के जागरण का द्योतक है।

देश के विभिन्न राज्यों में यह पर्व अलग-अलग नामों से अलग-अलग अंदाज में मनाया जाता है लेकिन मूल उद्देश्य उत्तरायण के सूर्य का हर्षोल्लास से अभिनंदन और उसकी ऊर्जा को बाह्य जगत व आंतरिक चैतन्य जगत मे अनुभव करना है।

देवभूमि उत्तराखंड में भी उत्तरायण के इस पर्व का अपना विशेष महत्व है । पर्वतीय राज्य , अनूठी संस्कृति, पौराणिक इतिहास और लोक परंपराओं की समृद्ध विरासत होने के कारण यह पर्व पूरे पर्वतीय अंचल में अनूठे पारंपरिक अंदाज में मनाया जाता है।

कुमाऊं, गढ़वाल और जौनसार तीनों  क्षेत्रों की अपनी विशिष्ट भाषा, संस्कृति और इतिहास होने के कारण इस पर्व को मनाने का अंदाज भी  विशिष्टता लिए है। पर्व के आयोजन की विविधता के बावजूद तीनों  अंचलों में अपनी सांझी सांस्कृतिक विरासत ,सामाजिक मूल्य व सरोकारों के संरक्षण ,संवर्धन तथा अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की चेष्टा और प्रतिबद्धता है।

कुमाऊं में यह त्यौहार घुघुतिया के रूप में मनाया जाता है। आटे और गुड़ के मीठे पकवान बनाकर उसे विभिन्न आकृतियों में ढालकर बच्चों के लिए माला के रूप में पिरोना और विभिन्न पकवान बनाकर कोऔ को आमंत्रण देना प्रकृति के साथ समरसता का प्रतीक है। बच्चों द्वारा कौऔ को गुहार लगाकर घुघुतिया, बड़े, पूरी आदि खाने को दिया जाता है और बदले में सोने की थाल ,भाई बहनों का साथ , सोने का घड़ा मांगना सदियों से चली आ रही लोक परंपरा के निर्वाह के साथ-साथ कहीं न कहीं अदृश्य शक्तियों और अपने पितरों का आह्वान कर परिवार व समाज के प्रति शुभकामना की भावना का प्रतीक भी है । इस अवसर पर कुमाऊं में बागेश्वर में सरयू और गोमती नदी के संगम पर बागनाथ मंदिर के पास पारंपरिक अंदाज में भव्य उत्तरायण मेले का आयोजन भी किया जाता है।

वही गढ़वाल में यह त्यौहार मकरैण के नाम से मनाया जाता है। यहां घुघुतिया बनाने की परंपरा नहीं है वरन यहां यह पर्व खिचड़ी सक्रांति के रूप में मनाया जाता है। गढ़वाल क्षेत्र में उत्तरायण के अवसर पर कण्वाश्रम,थल नदी के किनारे  डाडामंडी में और बिलखेत में सांगुडा के सेरों में लगने वाले गिंदी मेला भव्यता लिए हुए हैं। गढ़वाल में गेंद के मेले प्रसिद्ध है जिन्हें समूचे उत्तराखंड से ही नहीं देश विदेश से भी लोग देखने आते हैं। गेंद के ये मेलें 

 शौर्य ,पराक्रम ,सामाजिक समरसता व स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के प्रतीक है।

जहां कुमाऊं में उत्तरायण का पर्व उत्तरैणी और गढ़वाल में मकरैणी के पर्व के रूप में मनाया जाता है तो वहीं जौनसार बावर क्षेत्र में यह पर्व माघ मास की सक्रांति से आरंभ होकर पूरे माघ मास में मरोज त्योहार के रूप में मनाया जाता है ।जौनसार बावर के क्षेत्र में यह पर्व सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक पहचान और नारी स्वाभिमान प्रतीक है ।यह पर्व द्रौपदी की उस प्रतिज्ञा को पूरा करने के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है जिसमें उन्होंने दुशासन के अपमान के पश्चात उसके रक्त के अपने केशों को धोने की प्रतिज्ञा थी। इस परंपरा का निर्वाह करते हुए यहां आज भी दुशासन के रूप में बकरे की बलि दी जाती है और घर में वरिष्ठ महिला उसके रक्त से बालों को धोने के पश्चात ही अपनी बालों को बांधती बनाती है। मातृ सत्तात्मक समाज होने के कारण बकरे के हृदय में मामा का अधिकार माना जाता है।

उत्तराखंड में उत्तरायणी का यह पर्व उनके रोजमर्रा के कठिन एकरस जीवन को जीवंतता प्रदान करने के साथ-साथ सद्भाव ,मेल मिलाप , उल्लास तथा ऊर्जा का संचार करता है दूसरी और अपनी संस्कृति और संस्कारों से जोड़ने का कार्य करता है। बेटियों को अपने मायके आने का अवसर और प्रवासियों को घर लौटने के लिए संदेश देता है।

उत्तराखंड से बाहर रहने वाले प्रवासी भी उत्तरायण के पर्व में जगह-जगह विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन कर मेल-मिलाप का बहाना ढूंढते हैं और उसी पारंपरिक अंदाज में इस पर्व को हर्षोल्लास से मना कर जड़ों से जुड़ने का प्रयास करते हैं क्योंकि व्यक्ति कहीं भी किसी भी परिवेश में रहे उसका जड़ों से लगाव प्राकृतिक होता है। इस लगाव को समय समय पर ना सींचा जाए तो यह सूखने सा लगता है और समूचे अस्तित्व को ही खोखला कर देता है ।

इस लेख के माध्यम से मैं पुनः उतरायण के पर्व की शुभकामनाएं देती हूं और आशा करती हूं  यह पर्व हम सभी को उत्तरायण की ओर प्रवृत्त कर अभूतपूर्व ऊर्जा का संचार व जागृत चेतना का निर्माण करेगा।

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