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विकास की भी अपनी एक अवस्था....(जोशीमठ)


यह सच है विकास भी कहीं न कहीं पहुंचकर ठहरता है.....। विकसित होने के पीछे भले ही दुनियां भागती है किन्तु उसकी भी अपनी एक सीमा है । उस सीमा से आगे पहुंचकर विकास भी कहीं न कहीं उतने सकारात्मक प्रभाव नहीं छोड़ता।

जिस प्रकार मनुष्य के जीवन में उसके स्वयं के विकास की एक अंतिम स्थिति आती है उसी तरह जीवन और विकास से  जुड़ी हुई भी यह एक मिलीजुली प्रक्रिया है। अब इसी अंधाधुंध विकास की भेंट चढ़ रहा है यह  पर्वतीय क्षेत्र...

जोशीमठ सहित उसके नजदीकी  क्षेत्रों के  खिसकते पहाड़, मकानों  की दरारें  इस समय प्रमुखता से छाए हुए हैं। इसके कारणों का  सही विश्लेषण किया जाना  इस समय आवश्यक प्रतीत होता है।

इस क्षेत्र के पहाड़ अभी अपनी शैशव- अवस्था में ही हैं। कई शहरों की तरह जोशीमठ भी पुराने भू-स्खलन के ऊपर ही बसा है। जनपद चमोली के नंदप्रयाग सहित यह क्षेत्र 1803ई. में आए विनाशकारी भूकंप और 1894 ई. की विरही गंगा की बाढ़  में काफी नुकसान पहले भी झेल चुका है। सन 1970 में भी गौनाताल के टूटने तथा पाताल गंगा के उद्गम स्थान पर वज्रपात होने से भी इस क्षेत्र को  नुकसान हुआ। किंतु इस समय जो जोशीमठ उसके बाद कर्णप्रयाग ,टिहरी की जो स्थिति बन रही है,वह बहुतचिंताजनक  है।

जोशीमठ में भू- धसाव को लेकर सन 1976 में  ' मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट' आ चुकी थी किंतु उस पर कोई अमल नहीं हुआ। कालांतर में सुषमा स्वराज जी भी अपने एक  वक्तव्य में उत्तराखंड में आ रही इस तरह की स्थिति के लिए आगाह कर चुकी थी। वस्तुतः यह सारी स्थितियां इस समय की दशा को देखते हुए  सामने लाई जा सकती हैं।

 (1.) इन कच्चे, मलवे  के ऊपर बसे पहाड़ों पर अतिरिक्त भार।

(2.) अनियोजित- अनियंत्रित शहरीकरण

(3 .) जनसंख्या का दवाब

(4.) विभिन्न बहुउद्देशीय परियोजनाएं,निर्माण कार्य,ब्लास्टिंग, भूमि का कटाव,नदियों का कटाव आदि।

(5.) वर्षा के दौरान या घरों से निकलने वाले पानी के निस्तारण की सही व्यवस्था का न  होना।यह पानी जब जमीन के नीचे जाता है तो जमीन खोखली होती जाती है।

(6.) इन खोखले पहाड़ों पर फिर बहुमंजिला इमारतों  का निर्माण आदि..…..।

आप स्वयं देखिए यह सब अनियमितताएं लंबे समय से चलती रही और आज स्थिति ने भयानक रूप ले लिया।

अब स्थिति यह बनती जा रही है कि  धीरे- धीरे  सरकते और दरकते इन पहाड़ों को रोक पाना किसी के बूते में नहीं। हां, कुछ समय के लिए स्थिर किए जाने के प्रयास संभव हो सकते हैं किंतु इन्हें आगे के वर्षों में भी रोक पाना एक चुनौती ही है।स्वयं बद्रीविशाल भी इन पहाड़ों को कैसे रोक पाएंगे जिनकी आस्था के सहारे यहां का जनमानस अडिग बना हुआ है...विचारणीय है।

यहां का आम व्यक्ति अब बहुत दुविधा और संकट में है कि अपने रोज़गार,नौकरी, बसी बसाई घर- गृहस्थी ,बच्चों को लेकर जाए भी तो कहां जाए...? आगे का भविष्य चिंताओं से लिपटा हुआ है।अब सरकार को अविलंब इनका उचित प्रबंध, हर दृष्टि से अवश्य करना चाहिए।

 पहाड़ों में रहना हो तो  सीमित साधनों के साथ,जीवन यापन करना उत्तम रहता है।जितनी बड़ी संपदा, उतना बड़ा मोह, उतना ही वैराग्य...।जीवन भर सृजन किये जाने की एक आंतरिक पीड़ा और जहां अंत में यादों के सिवा कुछ ठोस हाथों में भी नहीं....।

हेमा उनियाल


          

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