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आइये, इस बार की इगास गाँव में मनाएं, सूने गांवों में उजास लाएं

Igas bagwal

इगास बग्वाल का उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बहुत ही महत्व है जिसे देव उठावनी व एकादशी के नाम से भी जाना जाता है और इसे उसी प्रकार धूम-धाम से मनाया जाता है जैसे अन्य शहरों में दिवाली। आइये जानते हैं इगास बग्वाल के विषय में......... 

बग्वाल, दिवई, दियाईं, दीपावली के ठीक 11 दिनों के पश्चात इगास यानि की देव उठावनी एकादशी आती है।

ईजा (ब्वे) ने बताया कि इगास के दिन सुबह से ही पकवान बनाए जाते हैं। गौशाला में चौपायों (गाय, बैल, भैसों) को पूरी, पकौड़ी दी जाती है। चौपायों के लिए विशेष प्रकार का हतिना (गेहूं, जौ, मँड़ुआ, चने और भट्ट से निर्मित आटा) को ढिंडा बनाकर खिलाया जाता है। टीका लगाया जाता है। उनके सींगों में तेल लगाया जाता है। उन्हें विशेष प्रकार से लाड़-प्यार, दुलार किया जाता है। एक तरह से देखा जाए तो उनकी विशेष प्रकार से पूजा/अर्चना की जाती है।

ईजा (ब्वे) ने बताया कि शाम को छिल्ला (चीड़ के पेड़ की लकड़ी से निर्मित होती हैं) को बबूल की रस्सियों से बांधकर भैलो/भैली बनाया जाता है। कुछ लकड़ियां तो लीसामय होती हैं और जो लीसामय नहीं होती हैं उनमें मिट्टी का तेल छिड़कते थे कभी हम। गाँव के सभी लोग भैलो खेलने के लिए गाँव से बाहर जाते थे। बग्वाल खेलने के लिए जहां गेहूं बोया जाना होता था वहां जाते थे और इगास खेलने के लिए फग्वाड सारी जाते थे फग्वाड सारी का अर्थ है कि जिन खेतों को 6 माह तक धान बोने के लिए कभी छोड़ा जाता था।

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ईजा (ब्वे) बताती हैं कि इगास के 3 दिनों पश्चात बिनसर और केदार का भव्य कौथिग लगता है। किसी जमाने में लोग उलट-पलट कर इन कौथिगों में जाते थे। आज चाहकर भी नहीं जा पाते हैं। क्योंकि उत्तराखंड अब सिर्फ बूढ़ों के सहारे ही जीवंत और खड़ा है।

ईजा (ब्वे) ने बताया कि बिनसर के मेले में किसी जमाने में ग्राम केलानी के महर (नेगी) लोग मोल्या (गाँव और क्षेत्र के लोगों का समूह में किसी विशेष कार्य के लिए एकत्रित होकर जाना, जिसमें एक जोड़ी निसाण (पहाड़ी झंडे), ढोल, नंगाड़ा, दमाऊ, रणसिंग, चिमटा आदि होते थे) ले जाते थे और एक रात्रि पूर्व वहां पर खैराड़ (भंडारा) करते थे। फिर सुबह मंदिर जाते थे। महर लोग मां नंदा की पूजा करते हैं। उन्हीं पर मां नंदा का अवतरण होता था। ईजा बताती हैं कि किसी जमाने में पार्वती मौसी की बूबू पर मां नंदा अवतरित थी उसके पश्चात उनकी मां पर अवतरित हुई और वर्तमान में मां नंदा का भाव उन्हीं के परिवार में सुभाष नेगी जी के मां पर है। मां नंदा गाँव से बिनसर तक नंगे पांव नाचते हुए जाती थीं और उनके पीछे पीछे पूरा जन समुदाय होता था। ईजा कहती हैं कि ऐसा उन्होंने सुना है कि बिनसर में एक बहुत बड़ा पत्थर है किसी जमाने में उन पत्थरों के बीच मधु मक्खियों का एक बड़ा छत्ता हुआ करता था। एक बार एक हुड़किया और हुड़क्याणी वहां पर गए और उन्होंने वह शहद खा लिया। शहद खाने के पश्चात वे दोनों उसी विशालकाय पत्थर पर चिपक गए। कहते हैं कि उन दोनों की आकृति अभी भी उन पत्थरों पर दिखाई देती है। ईजा बताती हैं की बिनसर से दूधातोली की स्वच्छ, धवल पहाड़ियाँ नजर आती हैं। कहते हैं दूधातोली की पहड़ियों में सुबह के समय ढोल, नगाड़े, शंख स्वत: बजते हुए सुनाई देते हैं क्योंकि इस समूचे क्षेत्र को देवलोक कहा जाता है।  

चंद्र सिंह रावत “स्वतंत्र”

इंदिरापुरम गाजियाबाद 

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