शिक्षक दिवस पर खास रिपोर्ट- सनातन की ओर
मुड़ना होगा...वहीं से होगा पुनरुत्थान
हमारी सनातन संस्कृति "वसुधैव कुटुंबकम्" की रही है। सत्य,संयम,त्याग,अहिंसा,परोपकार,संतोष की रही है। हमारे वैदिक मंत्र हमें कहते हैं.."आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:" अर्थात सभी दिशाओं से कल्याणकारी विचार आने दो..। किंतु आज मनुष्य ने उन विचारों को आने के लिए समस्त ज्ञान रूपि खिड़कियां बंद कर दी हैं।सिर्फ स्वयं के लिए जीने और संग्रह करने की प्रवृत्ति ने आज भयावह स्थिति को जन्म दिया है। चारों दिशाओं से जहां अच्छे विचार आने थे वहां घोटाले पर घोटाले सामने आ रहे हैं।कई पीढ़ियों के लिए जमा कर लेने की प्रवृति "भ्रष्ट तंत्र" को बढ़ावा देती है।हमारे वेद कहते हैं ...."धन की शुद्धि के लिए दान आवश्यक है"।अर्थात "सैकड़ों हाथों से कमाओ और हजारों हाथों से बांट दो"। "शतहस्त समाहार सहस्त्र हस्त किरं" ..संसार में सब कुछ चलायमान है,परंतु धर्म स्थायी है,निश्चल है।समय के साथ इसके अर्थ भी नहीं बदलते। धर्म यानी जो धारण करने योग्य है। प्रात: जल्दी उठना, सैर-व्यायाम करना,अपने माता - पिता बुजुर्गजनों को सादर प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेना।प्रकृति व उसके जीवों के प्रति नतमस्तक होना, उन्हें प्रेम करना।अपने वेदों,अपने धर्म- ग्रंथों, देवों का स्मरण करना, स्नान कर शुद्ध आहार लेना , शुद्ध विचार रखना।अपने घर के सभी सदस्यों का ख्याल, सम्मान,प्रेम रखते हुए अपने कार्य क्षेत्र की ओर निकल पड़ना। यही तो आदर्श जीवन है...!
जिस भी विभाग की कुर्सी आपके अधीन है उस पर पूरी निष्ठा,ईमानदारी से कार्य करना।आपने देखा होगा कि गलत आचरण वालों की ,उनकी मृत्यु के कई वर्षों बाद भी हकीकत खुल रही है और जो उस समय बड़े ताकतवर और श्रेष्ठ माने जाते थे।आज देश तो क्या परिवारजन भी उनकी वजह से अपमानित हो रहे हैं।यह बात भी उनके लिए है जिनके जीवन में ' सम्मान' जैसा कोई शब्द बचा हुआ है। अतः गलत कार्यों का तो फल अवश्य मिलता ही है और व्यक्ति वह दुर्लभ आत्म संतुष्टि भी खो बैठता है ,जिसके लिए उसने यह सब यत्न किए।
इसलिए हम सदैव अच्छे,कल्याणकारी कार्यों की ओर उन्मुख हों। अपार शांति- सुकून है धर्म के सही मार्ग पर चलने में..
इस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है और मेरा अगला उद्देश्य यही है कि मैं इस पर ठोस कार्य कर सकूं। पौराणिक ग्रंथों, मौलिक रचनाओं को पढ़ने और जीवन में अच्छे कार्यों को करने के प्रति रुचि रही है और उसे समाज को बांट पाना मेरे लिए उद्देश्यपूर्ण कदम होगा।
जीवन में देखा गया है कि आज का इंसान पहले से कहीं ज्यादा विकसित और संपन्न है किंतु फिर भी वह किसी दृष्टि, एंगल से खुश नज़र नहीं आता।यह नेत्रों का भी दोष कहा जा सकता है ,किंतु हकीकत है।इसलिए पहली आवश्यकता इंसान को एक परिपूर्ण इंसान/मानव बनाने की है ... "मनुर्भव:" । अतः सबसे प्राचीन हमारे वेद हैं जिसमें अपार ज्ञान भरा हुआ है।उन्हें पुनः सरल व्याख्या के साथ समाज तक लाने की परम आवश्यकता है।
हकीकत में हम नया कुछ नहीं रचते,देश- काल- परिस्थिति अनुसार जो विचार हमें आदर्श जीवन जीने के लिए अच्छे लगते हैं व समाज के लिए ग्राह्य करने योग्य हैं उन्हें हम आगे बढ़ाते चलते हैं। विभिन्न महत्वपूर्ण ग्रंथों के विद्वानों द्वारा किए गए 'सरल भाष्य' इसका उदाहरण हैं।
उल्लेखनीय है कि कोई भी व्यक्ति अपनी मेहनत व सामर्थ्य के अनुरूप एक किसान,मजदूर से लेकर इंजीनियर, डॉक्टर, आईएएस आदि जो भी वह बनना चाहता है अपनी लगन से बन सकता है।किंतु पहली आवश्कतता उसे एक परिपूर्ण इंसान बनने और बनाने की है।
अतः आगे के नौनिहालों के लिए भी प्रारंभ से ही नैतिक शिक्षा की अनिवार्यता को स्कूली शिक्षा में आरंभ से ही रखते हुए उन्हें अपनी सनातन संस्कृति,भारतीय संस्कृति की ओर मोड़ना अति आवश्यक होगा।तभी सार्थक, कल्याणकारी परिवर्तन संभव है।
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