दिल्ली : उत्तराखंड के साहित्यकारों ने गांधी शांति प्रतिष्ठान दीनदयाल उपाध्याय मार्ग में तीसरी साहित्यिक संगोष्ठी की । चर्चा शुरू होने से पहले साहित्यकार शशि जोशी जी के पतिदेव की आकस्मिक मृत्यु पर शोक संवेदना प्रकट की गई और दो मिनट का मौन रख उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
इस संगोष्ठी में ओम ध्यानी जी की कविता आखिरी इच्छा पर चर्चा हुई। कविता का सार ये था कि एक बुजुर्ग दम्पति अपने गांव से आकर अपने बेटे बहु के साथ शहर में रहने लगते हैं लेकिन उन्हें अपने गांव की यादें हर समय कचोटती रहती हैं। उनकी विवशता इतनी बढ़ जाती है कि अंत में उन्हें अपने बेटे से अपनी आखिरी इच्छा जाहिर करते हुए कहना पड़ता है कि मरने से पूर्व मुझे मेरा गांव दिखा दो।
उपस्थित वरिष्ठ और युवा साहित्यकारों और कवियों ने इस पर अपनी अपनी टिप्पणी दी।
सर्वश्री मंगत राम शर्मा ने कहा कि ओम जी ने पिता पुत्र के माध्यम से पलायन की पीड़ा का जो मार्मिक दर्द पेश किया है वो दिल को छू गया। मैं इस सुंदर कविता पर समीक्षा कि कोई गुंजाईश नहीं समझता। वृजमोहन वेदवाल जी ने कहा कि कविता में गढ़वाली के ठेठ शब्दों का प्रयोग और पलायन की पीड़ा को नए अंदाज से दर्शाया गया है। कवी को साधुवाद। चंदन प्रेमी जी ने कहा कि दिल्ली में मेरे साथ मेरे 101 साल के पिताजी रह रहे हैं पर यथार्थ से आज परिचित हुआ । कविता के भावों से गदगद हूँ। वहीं दिनेश ध्यानी जी ने कहा ये कविता एक अलग सुर में गीत सी है। दुनिया भर में हर जगह पलायन का दर्द एक सा नहीं है। हमें कोशिश करनी चाहिए कि समय समय पर अपने अपने घर गांव जाते रहें, ताकि जीवन के साथ हमारी यादें भी जीवित रह सके। उन्होंने कहा कि साहित्यकार की रचनाएं समाज में फिल्मों से इतर अलग प्रभाव छोड़ती है। मैं ओम भुला के लेखन में निरंतरता की कामना करता हूँ। जयपाल सिंह रावत जी ने कहा कि लेखक भावुक होते हैं। उनको अपनी कविता, नाटक, गीत आदि में अपने उद्गारों को स्पष्टता से रखना चाहिए । डंडरियाल जी बोलते थे कि लिखते रहो काट छांट तो बाद का काम है। ध्यानी जी कि मूल रूप से गीतों पर अच्छी पकड़ है। ये कविता लंबी बन पड़ी है। लंबी रचनाओं को किस रूप या विधा में लिखा जाए इस पर विचार होना चाहिए। मेरा मानना है कि रचना सीमित शब्दूं वाली ही बेहतर प्रभाव छोड़ती है।
युवा साहित्यकार संदीप गढ़वाली ने कहा पलायन का दर्द सबको होता है लेकिन, बुजुर्ग ज्यादा महसूस करते हैं। लेकिन उन्होंने ओम ध्यानी से मुखातिब होकर कहा कि पलायन पर आपकी घुघुति-घिनुड़ीऽ वार्तालाप कविता इससे बेहतर लगती है । दीपक शर्मा जी ने कहा कि पलायन मजबूरी नहीं बल्कि आवश्यकता है। हम घर गांव से जुड़े हुए हैं इसलिए हमें चाहिए कि वहां अपने मकानों को ठीक कर कभी कभी रहना भी चाहिए। सतीश रावत ने कहा बुजुर्ग लोगों ने अपनी द्वी पीढ़ी देखि होती है इसलिए उनको पलायन का दर्द प्रभावित करता है। रघुवर दत्त शर्मा राघव जी पलायन को पहाड़ की वेदना मानते हैं। उनका कहना था कि पहाड़ के गांवों में लघुकुटीर उद्योग से पलायन की पीड़ा को कम किया जा सकता है।
दिल्ली से रिवर्स पलायन करने वाले नरेंद्र बड़वाल ने कहा कि मैं तो अपना आधार, टमाटरों के सूप का व्यवसाय कर एक अलग पहचान बना ली है। जुगराज सिंह रावत जी ने ध्यानी जी की बढ़िया रचना को साधुवाद दिया। पलायन पर काम कर रहे हैं रचनाओं में उनकी भी बात होनी चाहिए। इंद्रजीत सिंह रावत ने कविता को हृदयस्पर्शी बताया।भगवती प्रसाद गढ़देशी जी कहा कि कविता में भावपक्ष बढिया व्यक्त किया गया है। लय, तालबद्धता बनती है। विचार व्यवहार बदलकर बहुत कुछ हो सकता है।
जगमोरा जी ने कहा कि कविता में चुंबकीय आकर्षण है। हमारे गांवों का वातावरण सभी को प्रभावित करता है। लेखक, कलाकार इस बात को समझकर और पकड़कर अपने लेखन में ढालते हैं। साहित्यिक संवाद का मकसद दो पीढ़ियों के बीच के अंतर को कम करने की एक कोशिश है। अपने बचपन को दोबारा जीने की हर एक व्यक्ति की इच्छा करती है। जबर सिंह कैंतुरा जी ने कहा ओम ध्यानी जी का कंठ मधुर व सुरीला है। लेखक की कविता-गीत की विषय-वस्तु गंभीर अर भावुक रहती है। साहित्यकार में ये गुण होने चाहिए। जगदंबा चमोला और इनके लेखन में समानता नजर आती है। भाषा गढ़ने और ठेठ गढ़वाली के शब्दों का ये बहुत अच्छा प्रयोग करते हैं । बाघ, घ्वीड़, काखड़, नेतण, परोठी जैसे शब्द बोलने में भी अच्छे लगते हैं । शशि जोशी जी ने कहा ध्यानी जी बढिया लिख रहे है। हाल मै मेरे पति जोशी जी का देहांत हो गया था तो मेरी बेटी ने भी बड़े मार्मिक भाव कि कुछ पंक्तियां लिखी। जब उन्होंने उसका वाचन किया तो सुनने वाले अपने आंसू नहीं रोक पाए। सामाजिक कार्यकर्ती व कवयित्री पुष्पा ने कहा मैं पहाड़ की महिलाओं की समस्याओं पर काफी लंबे समय से काम कर रही हूँ। शशि बडोला जी विचार से किसी भी चीज की अति एक दिन पलायन जैसी समस्या बन जाती है। इसके लिए समाधान तलासना पड़ेगा। इसके लिए मैं अपने गांव में एक सामूहिक समिति बनाकर खेती-बाड़ी के प्रोजेक्ट पर कार्य कर रहा हूँ।
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में श्री मंगतराम धस्माणा जी की रचनाओं पर चर्चा हुई। उन्होंने पहले एक प्रार्थना गीत पढ़ा, फिर 'मास्टर जी की मार' कविता सुनाई। कविता का मर्म ये था कि गांव के स्कूल में बचपन में मास्टर साहब ने भले डंडा, बेंत, य सोटगी की डर पर पढ़ाया पर उनका उद्देश्य अपने शिष्य को कुमार के घड़ा बनाने की प्रक्रिया जैसा होता था। 'अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहर चोट'। वो सीख आज भी याद आती है।
और अंत में उपस्थित सभी साहित्यकारों ने पहाड़ किए विभिन्न विषयों पर कविता पाठ किया ।
0 टिप्पणियाँ