(इस वर्ष माँ चण्डिका देवी अपने दस माह के भ्रमण पर 7 सितंबर 2024 को अपने गर्भगृह से बाहर आ रही है। माँ 11 सितंबर को अपने पहले पड़ाव के लिए ग्राम रतूड़ा(चांदपुर) जाएगी। यात्रा अवधि के दौरान सिमली पिंडर नदी में, जय माँ चण्डिका" जय गोल गुणसाई और समुद्र मंथन का कार्य होता है)
कर्णप्रयाग : कर्ण की तपस्थली पंच प्रयागों में से तीसरे प्रयाग कर्णप्रयाग से 6 किलोमीटर दूर नैनीताल मार्ग पर पिंडर नदी के बाएं किनारे पर पीपल के पेड़ के नीचे सिद्धपीठ माँ चण्डिका देवी का मंदिर स्थित है। यह मंदिर चण्डिका देवी काली को समर्पित है। वैसे तो मंदिर को मूलतः गोल गोविंद मंदिर समूह के नाम से जाना जाता है, लेकिन जब से माता चण्डिका देवी की मूर्ति पिंडर नदी में बहकर इस क्षेत्र में आयी तब से इस पूरे मंदिर परिसर को माँ चण्डिका देवी मंदिर के नाम से जाना जाता है। यहां के पुजारी प्राचीन काल से ही गैरोली गांव के गैरोला जाती के लोग हैं।
पुजारी पंडित महानंद गैरोला बताते हैं कि यह मंदिर मूलरूप से गोविंद मठ है और यहाँ भगवान विष्णु से संबंधित प्रतिमाएं हैं। भगवान विष्णु यहां चतुर्भुज रूप में शंखचक्र धारण किये हुए हैं, साथ ही मंदिर में भगवान विष्णु गरुड़ पर पूर्व की ओर विराजमान हैं। मंदिर परिसर में बैकुंठ विष्णु मंदिर भी स्थित है, जिसमें विष्णु जी के तीन अवतार बाराह अवतार, नृसिंह अवतार और बैकुंठ स्वरूप दिखाई देते है।
पंडित महानंद जी आगे बताते हैं कि मंदिर परिसर में माँ चण्डिका की काष्ठ मूर्ति बेहद अनूठी है। यह काष्ठ मूर्ति 18 वीं सदी में पिंडर नदी में बहकर यहां आई थी जिसे स्थानीय लोगों ने इस स्थान पर स्थापित किया था। यह मंदिर तीर्थयात्रा व संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है। यहां आकर भक्तों को अपार शांति का आभास होता है और उसे अपना जीवन सार्थक होता प्रतीत होता है।
माँ चंडिका देवी मंदिर में प्रति बारह वर्ष के बाद देवी का दयोरा होता है। इसमें देवी 10 माह के लिए क्षेत्र भ्रमण पर जाती है। इस दौरान वे अपनी ध्यानियो के घर जाकर उनका सुख-दुःख जानती है और उनकी मनोकामना पूर्ण करती है। इस यात्रा में मुख्य रूप से सिमली, सेनू, सुंदरगांव, जाख, कोली और पुड्याणी के ग्रामीण प्रतिभाग करते हैं व गैरोली गांव के गैरोला जाती के लोग पुजारी होते हैं। दस माह की यात्रा के दौरान माँ चण्डिका देवी का दयोरा उत्तराखंड के पांच जिलों चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी, टिहरी और उत्तरकाशी का भ्रमण करती है। उत्तरकाशी में शक्तिपीठ (बाड़ा शक्ति) शक्ति मंदिर तथा बाबा विश्वनाथ मंदिर का भ्रमण कर वापस अपने मूल स्थान सिद्धपीठ सिमली में आकर दस दिन के यज्ञ, देवी भागवत पाठ का समापन करते हुए व भक्तों को अपना आशीर्वाद देते हुए अपने मूलस्थान गर्भगृह में प्रवेश करती है।
भारत की पूर्व संस्कृति का प्रतीक और प्रेरणादायक यह यात्रा हमारे लिए एक महान उपलब्धि है। यह मानव के लिए जीने का, शांति व मोक्ष प्राप्ति का एक अपूर्व साधन है। इसलिए हमें इसे आगे भी अविरल गति से बनाए रखना चाहिए।
पंडित महानंद गैरोला जी कहते हैं कि वर्ष 1994-95 की माँ चण्डिका देवी की दस माह की पैदल यात्रा में मुझे देवी की आज्ञानुसार सेवा करने का अवसर मिला था। यह कठिन यात्रा मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। आज तीस वर्ष बाद भी मैं माँ की कृपा से स्वस्थ हूँ। इससे 21 वर्ष पूर्व सन 1973-74 में हमारे यहां से भाई पीताम्बर दत्त गैरोला जी यात्रा भ्रमण में गए थे। उस समय माँ चण्डिका देवी 51 वर्ष बाद बाहर आई थी।
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