जब जब उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन की बात होती है तो सबके सामने एक प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है। पलायन प्रकृति की एक नियति है। समृद्धि के लिए पलायन हो तो वो अच्छी बात है लेकिन पलायन से अगर हम अपनी जोड़ों को ही छोड़ दें तो वो अपने अस्तित्व को मिटाने वाला होता है। पलायन को आप कवित्री बीना नयाल के इन भावों से अच्छी तरह समझ सकते हैं।
पलायन प्रवृत्ति या मजबूरी
है प्रवृति या है मजबूरी
क्या पलायन है जरूरी
मन और बुद्धि के व्यापार में
चैतन्य से बढ़ती जाती दूरी
अधिकार और स्वतंत्रता का संघर्ष
संबंध रूपी शाकों मे होता प्रतिकर्षण
शनै: शनै: पलायन करता प्रेम
खोजते रहे अपने-अपने विमर्श
अंधकारमय जड़ों पर उन्मुक्त शिखर
मातृभूमि ,कर्मभूमि में उलझा भ्रमर
सहज स्वीकारता पलायन की नियति
सांध्य बेला में अक्सर जाता है बिखर
प्रकृति में भी है पलायन की प्रवृत्ति
और जड़ समृद्ध करने की अभिवृत्ति
तलहटी में ही होती अनमोल निधियां
दो तरफा संवाद की सनातनी संस्कृति
स्वीकार्य है स्वप्नों का स्वर्णिम सफर
पर थामें रखना मूल न जाना बिसर
एकाकार होना है आरंभ और अंत
कोश कोश पलायन से न जाए सिहर
बीना नयाल
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