रिपोर्ट-द्वारिका चमोली (डीपी)
उत्तरप्रदेश से पर्वतीय अंचल को अलग प्रदेश बनाने की मांग पचास साठ के दशक से ही समय समय पर उठनी शुरू हो गई थी। 1950 में जब हिमांचल राज्य अस्तित्व में आया उस समय उत्तराखंड को भी अलग प्रदेश बनाने के लिए केंद्रीय सरकार तैयार थी किंतु गोविन्द बल्लभ पंत इसके लिए तैयार नहीं हुए। इसके बाद भी पहाड़ में बुनियादी सुविधायें पर्याप्त मात्रा में न मिलने के कारण और रोजगार के लिए बढ़ते पलायन को देखते हुए ये मांग जोर पकड़ती रही और 90 के दशक के चलते ये चरम सीमा में पहुंच गई। इस दौरान अनेकों लोगों ने अपने प्राणों का बलिदान भी दिया। इसमें 1994 का मुजफ्फर नगर का वो वीभत्स मंजर आज भी भुलाये नहीं भूलता। अंततः 9 नवंबर 2000 को अटलबिहारी बाजपेयी की सरकार ने इस पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य घोषित किया जिसे उत्तरांचल के नाम से जाना गया किंतु बाद में इसका नाम उत्तराखंड कर दिया गया।
राज्य तो बन गया किंतु सामने समस्याएं पहाड़ बन खड़ी थी। ऐसे में इस नए नवेले राज्य की नीव पड़ने पर ही उसे कमजोर नेतृत्व के हवाले कर दिया गया जिसके पास विकास के नाम पर कोई विजन नहीं था जिसका नतीजा ये हुआ की हर कार्य में बंदरबांट होने लगी और राज्य निर्माण के आंदोलनकारियों को नज़र अंदाज़ कर प्रदेश से बाहर के व्यक्तियों को महत्त्व दिया जाने लगा। यहाँ तक कि नौकरियों में भी स्थानीय लोगों का ध्यान नहीं रखा गया नतीजन पहाड़ में पलायन की दर पूर्व के उत्तरप्रदेश में रहने से भी ज्यादा हो गई। सरकारी नौकरियों में भाई-भतीजा वाद का चलन बढ़ गया। एक और जहां राज्य बनाने से किसानों को खेती के वैज्ञानिक तौर तरीको से वाकिफ कर रोजगारपूरक कृषि को बढ़ावा देना चाहिए था बल्कि हुआ इसके बिलकुल विपरीत। खेत बंजर होने लगे और किसान गांव छोड़ने को मजबूर हैं जो आज 22 साल होने तक बदस्तूर जारी है।
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शिक्षा और स्वास्थ्य
शिक्षा के क्षेत्र में भी कोई नई क्रांति होती दिखाई नहीं देती। पहाड़ के बच्चों को आज भी पूर्व की भांति उच्च शिक्षा के लिए महानगरों का रुख करना पड़ रहा है। हालांकि सरकार ने प्राइमरी स्तर पर शिक्षा में कुछ बदलाव कर पहल तो की है किंतु अभी भी दूरस्थ क्षेत्रों में शिक्षकों का अभाव बना हुआ है। जहां शिक्षक है भी वो भी अपना ट्रांसफर देहरादून करवा रहे है। गांव खाली होने की वजह से कई प्राइमरी स्कूलों को प्रदेश में बंद कर दिया गया है। उत्तराखंड सरकार ने अपना अलग से शिक्षा बोर्ड बनाकर हाई स्कूल और इंटरमीडिएट में NCRT का कोर्स स्टार्ट कर एक अच्छा काम किया है। लेकिन इंटरमीडिएट के बाद के लिए अभी तक कोई व्यवस्था नहीं बनाई है। हालांकि प्रदेश में कुछ इंजीनिरिंग कॉलेज और मेडिकल कॉलेज जरूर खोले गए हैं पर वो पर्याप्त नहीं है। इसके अलावा दूसरी फील्ड में जाने के लिए न तो कोई कोचिंग इंस्टिट्यूट है और न ही कोई कॉलेज। यही हाल स्वास्थ्य क्षेत्र में भी दिखने को मिलता है। पहाड़ी इलाकों में जहां अस्पताल हैं वहां डॉक्टर नहीं है या कमी है या फिर अस्पताल की बिल्डिंग जर्जर हालत में है। अभी वर्तमान की धामी सरकार ने कुछ डॉक्टर्स की नियुक्तियां इन क्षेत्रों में कर आशा जगाई है। गांवों में स्वास्थ्य केंद्र खोले गए हैं पर उनमें डॉक्टर न होने की वजह से वे भी जर्जर हाल में हैं।
हाल ही में धामी सरकार ने श्रीनगर के मेडिकल कॉलेज का विस्तार किया है और इसमें MBBS को हिंदी माध्यम से करने का प्रावधान भी रखा है। पर सवाल ये उठता है कि यहां से कोर्स करने वाले डॉक्टर्स पहाड़ में नहीं रहना चाहते। इसके लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। यहां से MBBS पास आउट करने के बाद इन डॉक्टर्स को 5 साल ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने की अनिवार्य शर्त होनी चाहिए।
पलायन और अपराध के लिए सड़कें जिम्मेवार
उत्तराखंड में अब तक जो सबसे बड़ा विकास दिखाई देता है वो है गांव गांव में सड़कों का जाल बिछना। आज सड़कें पहुंचने ने लोगों को सहूलियत तो हुई है लेकिन ये भी देखने में आता है कि जिन गांवों में सड़क पहुंची उनमें ज्यादा तेजी से पलायन भी हुआ और आपराधिक गतिविधियां बढ़ी है। सड़कें पहुँचने से गांवों में फेरी वालों की आवाजाही बढ़ी है और इनका कोई सत्यापन भी नहीं होता। जिन गांवों में कभी घरों पर ताले नहीं दिखते थे उनमें आये दिन चोरी होने की घटनाएं सामने आ रही है। सड़कें बनने से गांवों के पारंपरिक बाजार भी ख़त्म हो रहे हैं। सड़क निर्माण के लिए अत्यधिक विस्फोटक इस्तेमाल करने से पौराणिक जलस्त्रोत हिलने व खिसकने से सूख चुके हैं। इसके पुनर्थान के लिए सरकार ने ngo के माध्यम से एक योजना भी चलाई थी लेकिन वो भी अब ठंडे बस्ते में है। यही कारण है कि गांव पानी को तरस रहे हैं। सरकार चाहे तो नदियों में पम्पिंग सेट लगाकर प्रत्येक ग्रामसभा में पानी की टंकियों का निर्माण कर इस समस्या को हल कर सकती है किंतु इसके लिए गांवों में लोगों का होना भी अनिवार्य है।
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पलायन की वजह सरकार के साथ आम जनता भी
उत्तराखंड में अपार प्राकृतिक संपदा और तीर्थस्थल हैं जिसके चलते ये यात्रियों और पर्यटकों की पहली पसंद है। यहां ऐसे अनेकों पर्यटक स्थल हैं जिनकी सरकार ने कभी सुध ही नहीं ली और न ही यहां रह रहे लोगों ने इसे पर्यटन उद्योग के रूप में लिया। सन 2000 से पूर्व यहाँ गांवों में काफी हलचल रहती थी और यहीं से पढ़कर लोग आज देश के उचस्थ पदों पर आसीन हैं। यहां एक सोचने वाली बात ये है कि वहां के गांव से निकल कर जो रोजगार के लिए बाहर निकल कर थोड़ा संपन्न हुआ वो अपने परिवार को भी अपने साथ ले आया नतीजन धीरे धीरे पहाड़ खाली होते गए। हां महानगरों में बैठ कर हम जरूर उत्तराखंड प्रदेश की गिरती हालत पर बड़ी बड़ी बातें जरूर कर लेते हैं पर वह गांवों को विकसित करने के लिए पर्याप्त नहीं। अगर बात करें हिमाचल की तो उसके विकसित होने का एकमात्र कारण ये है कि उनलोगों ने अपने गांव से नाता जोड़े रखा।
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