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देश में चन्द्र सिंह गढ़वाली जैसी विभूतियां कभी कभी जन्म लेती हैं उनकी इच्छा थी उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण बने


लेखक- योगी मदन मोहन ढौंडियाल

भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी बीर चन्द्र सिंह गढ़वाली पर एक कहावत चरितार्थ होती है-जंगल में फूल  खिला किसने देखा, अगर देखा भी तो जंगल में देखा। आज उत्तराखण्ड  के कई  नेता उनके नाम की माला जप कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं लेकिन उनकी कल्पना उत्तराखण्ड की राजधानी गैरसैण से मुख भी मोड़ रहे हैं। अगर विषय वस्तु  को उठा भी रहे हैं तो बोट बैंक को ध्यान में रख कर ठीक चुनावों से कुछ दिन पहले, फिर यात्रा और ठंड के बहाने ठंडे बस्ते में डाल कर अपनी राजनीती को गरमा रहे हैं। अगर वे सही मायने में चन्द्र सिंह गढ़वाली की कल्पनाओं का सम्मान करते तो ऐसा कभी नहीं होता जैसा कि-देहरादून का माफिया तन्त्र  कर रहा है। 

चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म  25 दिसंबर 1891 को ग्राम - मासों, रौनीसेरा, पट्टी - चौथान  जिला - पौड़ी गढ़वाल ( उत्तराखण्ड ) में हुआ। 11 दिसंबर 1994 को 23 वर्षीय युवा गढ़वाली 2/39 गढ़वाल राइफल में भर्ती  हो गया था। उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में  मित्र सेनाओं  के विभिन्न अभियानों में भाग लिया लेकिन उनके जीवन में एक नया मोड़ तब आया जब उनकी पहाड़ी आत्मा ने 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में निहत्थे पठानों पर गोली चलाने  को मना कर दिया। आदेश ब्रिटिश शासन का था, कैप्टेन  रैकेट जो एक ब्रिटिश सैनिक अधिकारी थे 72 गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व कर रहे थे और उनके साथ  उप  नेतृत्व  चन्द्र सिंह गढ़वाली संभाल  रहे थे।  चन्द्र सिंह गढ़वाली ने बाकी गढ़वाली सैनिकों  को बताया कि निहत्थे लोगों पर गोली न चलायें और कैप्टेन  रैकेट के आदेशों को चन्द्र सिंह गढ़वाली ने नकार दिया ।  इसके बाद गोरों की टुकड़ी बुला कर पठानों पर गोलियां चलाई गयीं  और गढ़वाली सैनिकों को गिरफ्तार करके एबटाबाद (पेशावर कैंट, वर्तमान पाकिस्तान ) में मुक़दमा चलाया गया।  उस समय मुकुन्दीलाल , बार-एट-लॉ जो एक वकील थे और जवाहर लाल नेहरू के साथ ब्रिटेन में पढ़े थे, ने आगे आ कर गढ़वाली सैनिकों की पैरवी का भार संभाला।  मुकुन्दीलाल  एक सुलझे हुए वकील थे और  वर्तमान जिला चमोली, उत्तराखण्ड  के निवासी थे।  बहुत कोशिशों के बाद चन्द्रसिंह गढ़वाली को मृत्युदंड से आजीवन कारावास की सजा  बदली जा  सकी थी। अंग्रेजों का इरादा चन्द्रसिंह गढ़वाली को मृत्युदंड देने का ही था। बाकी बचे लोगों में 16 को लम्बे समय की सजाएँ हुईं। 39 लोगों का कोर्ट मार्शल हुआ और 7 को नौकरी से बर्खास्त किया गया।  अंग्रेजों ने  इन लोगों का जमा पैसा और वेतन भी जफ़्त कर दिया था।  सब  मिला कर इन सैनिकों के परिवारों को दाने  दाने के लिए मोहताज करने में कोई कमी नहीं छोड़ी  थी।13 जून  1930 का यह फैसला एबटाबाद छावनी में अंग्रेजों द्वारा सुनाया गया और उसी दिन इन लोगों को जेल भेज  दिया गया।  

इसलिए धूर्त सोच से अनुरोध है, पहाड़ और पहाड़ियों से भेदभाव मत करो। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक से कुछ सीखो। गैरसैण उत्तराखंड की स्थाई राजधानी की कल्पना बीर चंद्र सिंह गढ़वाली जी ने  की थी इसलिए यात्रा और ठंड का बहाना बनाने की बजाय अपनी सोच बदलो।


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