लोक परंपराओं और सांस्कृतिक विरासत को खुद में समेटे है उत्तराखंड के मेले
बीना नयाल(पुत्री स्वर्गीय दीवान सिंह नयाल)
उत्तराखंड की संस्कृति में मेलों का विशिष्ट महत्व है अगर यूं कहा जाए कि इन मेलों के बिना यहां का जीवन शून्य है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
वास्तव में गढ़वाल और कुमाऊं अंचल के विभिन्न क्षेत्रों में विशेष अवसरो पर आयोजित होने वाले इन मेलों में यहां की स्थानीय संस्कृति, लोक परंपराओं, लोक कला, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के दर्शन होते हैं । आधुनिक समय में जहां शहरों में चकाचौंध और भागदौड़ भरे जीवन में जहां मनुष्य स्वचालित यंत्र का हिस्सा बन गया है वहीं उत्तराखंड की रोजमर्रा की कठिन जिंदगी में यह मेले आम जनमानस को उनकी जड़ो से जोड़ने का प्रयास है वहीं उनमें सांस्कृतिक चेतना, मानसिक ऊर्जा, उत्साह व उमंग का संचार भी करते हैं।
उत्तराखंड के अलग-अलग स्थानों में मेले अलग-अलग अवसरों पर आयोजित किए जाते हैं इन मेलों का धार्मिक, ऐतिहासिक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक तथा पौराणिक महत्व है और वर्तमान समय में तो इन मेलों का व्यवसायिक और पर्यटन की दृष्टि से भी महत्व बढ़ गया है यही कारण है कि नगर पालिका परिषद और स्थानीय अधिकारी स्थानीय जनता के साथ मिलकर जगह-जगह पर इन मेलों का आयोजन पूरी देखरेख तथा भव्यता के साथ करते हैं ताकि मेलों के पारंपरिक स्वरूप के साथ उनका आधुनिकता के साथ भी तालमेल बैठाया जाए जिससे युवा पीढ़ी को उनकी संस्कृति से जोड़कर विकास के पथ पर चलने को अग्रसर किया जाए।
उत्तराखंड गढ़वाल मंडल के डाडा मंडी क्षेत्र में आयोजित होने वाला गिंदी महोत्सव यहां का राजकीय मेला है जो प्रतिवर्ष माघ माह में डाडामंडी और थलनदी क्षेत्र में पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है । इसमें 20 किलोग्राम वजन की गेंद को अपने पाले में लेने के लिए अलग-अलग पट्टियो के मध्य खेले जाने वाला रग्बी ही है जिसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं यह मेला बहादुरी, साहस, खेल भावना और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का प्रतीक है ।
उत्तराखंड के अधिकांशतः मेलों का संबंध महाभारत काल में पांडवों के अज्ञातवास, वनवास काल से है साथ ही स्थानीय देवी-देवताओं को मनाने के लिए आयोजित किए जाते हैं तथा अनेक प्रकार की धार्मिक मान्यताएं व दंत कथाएं इन मेलों से जुड़ी हुई है। यही कारण है कि मेलों में जहां दूरदराज के भौगोलिक क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को एक दूसरे से मेल मिलाप का अवसर मिलता है वही तरह तरह के मनोरंजन के साधनों से मन बहलाने के साथ-साथ अपनी अनूठी संस्कृति व सभ्यता की जड़ों को पुनः सीचने का भी अवसर मिलता है
वर्तमान समय में अन्य शहरों की भांति इन मेलो को भी स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार आधुनिक रूप देने की भरपूर कोशिश की गई है जैसे झूले आदि को बड़े पैमाने पर लगाया जाना, भव्य पंडाल, तरह-तरह के खाने-पीने के स्टाल, महिलाओं पुरुषों व घर की साज-सज्जा के लिए विभिन्न स्टॉल के साथ साथ स्थानीय हस्तशिल्प की बिक्री आदि के लिए स्टॉल। इसके साथ ही अधिकांश मेलो का शुभारंभ स्थानीय देवी देवताओं की पूजा अर्चना तथा डोली यात्रा के साथ होता है जो कि इसके पारंपरिक स्वरूप को यथावत बनाए रखने का सुंदर प्रयत्न है
परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत समन्वय धारण किए होते हैं उत्तराखंड के यह मेले।
कुमाऊं मंडल में चंपावत जिले के देवीधुरा क्षेत्र में लगने वाला बग्वाल मेला सुप्रसिद्ध मेला है जो कर्नाटक क्षेत्र के जलीकट्टू महोत्सव की बरबस स्मृति दिला देता है। बग्वाल मेला प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के अवसर पर मां बाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए लगाया जाता है जहां अनोखी पाषाण वर्षा होती है । यह मेला अटूट आस्था ,विश्वास, बलिदान और साहस का प्रतीक है जिसे देखने के लिए दूरदराज से लोग आते हैं।
इसी प्रकार कुमाऊं क्षेत्र का सांस्कृतिक नंदा देवी का मेला कुमाऊं गढ़वाल एकता का प्रतीक है क्योंकि पूरे उत्तराखंड के निवासियों व हिमालय क्षेत्रवासियो की मां नंदा देवी के प्रति अटूट आस्था तथा विश्वास है। यहां मेले में जगरियो द्वारा लोक कथाओं का गायन लोकगायको द्वारा लोकगीत और लोकनृत्य प्रस्तुति दर्शनीय होती है।
इसी प्रकार महादेव शिव जी की पूजा अर्चना से संबंधित गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित होने वाला बैकुंठ चतुर्दशी मेला है जो प्रतिवर्ष दीपावली के पश्चात शुक्ल पक्ष की चौदस तिथि को आयोजित किया जाता है।
कमलेश्वर मंदिर प्रांगण में आयोजित होने वाले वैकुंठ चतुर्दशी मेले में माना जाता है कि इसी मंदिर में भगवान विष्णु ने सहस्त्र कमलों से भगवान शिव की पूजा अर्चना कर उन्हें प्रसन्न किया था इसी भावना के आधार पर निसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति हेतु बैकुंठ चतुर्दशी के दिन हाथ में दीपक लेकर भगवान शंकर की आराधना करते हैं।
इसी प्रकार चैती का मेला नैनीताल जनपद के काशीपुर क्षेत्र में हर साल प्रतिपदा से पूर्णमासी तक आयोजित किया जाता है।
आधुनिकता और भव्यता के साथ साथ आयोजित इस मेले में सामाजिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक विरासत की झलक मिलती है। यहां बाला सुंदरी देवी का मंदिर है दूर-दूर से श्रद्धालु यहां पूजा अर्चना के लिए आते हैं और नवविवाहित जोड़े सुखी दांपत्य जीवन के लिए मां का आशीर्वाद लेने के लिए आते हैं थारू जनजाति की आस्था का केंद्र है माता बाला सुंदरी का मंदिर।
उत्तराखंड के मेलों की बात हो और हरिद्वार व प्रयागराज में प्रति 12 साल में आयोजित होने वाले कुंभ की बात ना हो तो मेले से संबंधित लेख अधूरा ही प्रतीत होगा। वास्तव में कुंभ मेला यहां की शान है जिसकी पौराणिक धार्मिक और ऐतिहासिक मान्यताएं हैं । देशभर में कोने-कोने से लाखों श्रद्धालु और पर्यटक यहां कुंभ के अवसर पर हरिद्वार में गंगा जी और प्रयागराज में संगम में स्नान करने के लिए आते हैं ।कुंभ के अवसर पर साधु-संतों का शाही स्नान विशेष रूप से दर्शनीय है जो उन्हें कुछ समय के लिए राजाओं की तरह वैभवशाली अनुभव प्रदान करता है परंपरा है कि शाही स्नान के पश्चात ही आम श्रद्धालु स्नान करते हैं ।कुंभ मेले के दौरान दुल्हन की भांति सजे हरिद्वार की शोभा देखने लायक होती है ।विभिन्न अखाड़ों के साधु संत जब सोने चांदी से सुसज्जित हाथी घोड़े सजी पालकी और रथो में जन बल और हथियारों के साथ स्नान के लिए निकलते हैं तब देसी क्या विदेशी सैलानी भी इस वैभव पूर्ण दृश्य को कैमरे में कैद करने के लिए लालायित रहते हैं । माना जाता है कि शाही स्नान से साधुओ को अमरत्व की प्राप्ति हो जाती है और आम लोगों को मोक्ष प्राप्त होता है।
वास्तव में उत्तराखंड मे समय-समय पर आयोजित होने वाले मेले सभी आयु वर्ग को आकर्षित करते हैं।
वास्तव में पहाड़ी क्षेत्र में जहां रोजमर्रा के दैनिक कार्यों से निवृत्ति बमुश्किल मिलती है तो यह मेले ही उनके लिए जीवन में आनंद व सुकून देने वाले क्षण होते हैं जिसका इंतजार उन्हें बेसब्री से रहता है।
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