उत्तराखंड में कैसे मनाते है दिवाली (बग्वाल)-होती है पशुओं की पूजा
UTTRAKHANDI DIWALI: उत्तराखंड की पारम्परिक दिवाली (बग्वाल) जहां मन में खुशियां देती है वहीं मानव और पशुओं के बीच के मधुर रिश्ते को भी उजागर करती है। वैसे आप ने देखा होगा कि उत्तराखंड के अधिकतर त्यौहारों में फसल और जानवरों का उल्लेख अवश्य मिलता है। वक्त के साथ यहां की बग्वाल में भी अंतर आया है जैसे जैसे लोगों ने शहरों का रुख किया वैसे वैसे पहाड़ की दिवाली में भी शहरों का रंग चढ़ने लगा और लोग पारम्परिक दिवाली मानने के लिए समय नहीं देते और स्वयं तक ही सिमित होते जा रहे हैं। पहाड़ों में जो हर्षोल्लास पहले देखने को मिलता था उसे याद कर आज भी गौशालाओं में पशुओं की पूजा और उनको पींडो खिलाते असंख्य लोगों की भीड़ का वो दृश्य आंखों के सामने आ खड़ा होता है।
कैसे मनाई जाती है बग्वाल
दुनिया में सभी जानते हैं कि दिवाली हर्षोल्लास व प्रेम का त्यौहार है और इसके पीछे भारत के प्रदेशों में अलग अलग मान्यताएं हैं लेकिन एक मान्यता तो सब जगह प्रचलित है वो ये कि श्री राम चंद्र जी की सत्य पर विजय की जिसके उपलक्ष में लोग घी के दिए जलाकर अपने घरों को रोशन कर अपनी ख़ुशी को जाहिर करते हैं। उत्तराखंड में भी कुछ ऐसी ही परंपरा है। धनतेरस के दिन से ही लोग अपने घरों की साफ-सफाई और लीपापोती करने लगते थे तथा युवा घरों के दरवाजों को ऐपण और अन्य तरीकों से सजाने लगते है। नरक चतुर्थी यानि कि छोटी बग्वाल को यहां अधिक जोर शोर से मनाया जाता है। इस दिन सुबह घर के सभी लोग स्नान आदि करके घर के मुख्य द्वार पर बने गणेश जी के चित्र पर गाय के गोबर के साथ कुंणजा लगाते है तत्पश्चात अपने इष्टदेव के सामने मां लक्ष्मी की पूजा अर्चना की जाती है फिर एक रात पहले से भिगाये झंगोरे, जौ और आटे से पशुओं के लिए पींडो (एक प्रकार का चारा) तैयार कर उसे परात या थकुली (थाली) में रखकर उन्हें विभिन्न प्रकार के फूलों से सजाकर तिलक व धूप के साथ अपनी-अपनी गौशालाओं में जाकर पशुओं को तिलक अक्षत लगाते है और सींगों पर तेल की मालिश करते है और धिक्क व्हे जाओ कहकर उनके गले और सींगों पर माला अर्पित कर खुशियां बांटते है और आपको देखने को मिलेगा कि पशु भी इस दिन अन्य दिनों के मुकाबले काफी खुश नज़र आते है मानों उन्हें भी भगवान के आगमन का आभास हो।
माना जाता है कि बग्वाल से पूर्व खेती के कामों में व्यस्त रहने के कारण लोग अपने पशुओं पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते और उनके चारे का भी सही से इंतेज़ाम नहीं कर पाते इसलिए इस दिन वो अपने पशुओं को मनमाफिक चारा खिला उनसे अपने व्यवहार के लिए भी क्षमा मांगते है और उन्हें छक कर खिलाते है। पहाड़ में एक मान्यता ये भी है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर राक्षस का बध किया था और इसी ख़ुशी में किसान पशुओं की पूजा करते है।
पशुओं की पूजा करने के पश्चाल सभी अपने घरों की ओर प्रस्थान करते हैं और उड़द की दाल के पकोड़े व स्वांली (पूरी), खीर, सूजी, रल्यों भात एवं अन्य अनेकों पकवान बनाते है और पूरी श्रद्धा के साथ पूरे दिन एक_दूसरे के घरों में आदान-प्रदान कर प्रेम भाव बरसाते हैं। फिर शाम को लक्ष्मी पूजा करने के बाद भोजन कर सभी गांव के लोग एक स्थान पर एकत्रित होते है और चीड़, देवदार के छिल्लों (छोटी छोटी लकड़ी) को बांधकर भेळो बनाते है और उसे चारों ओर घुमाकर एक खेल भावना से अपनी ख़ुशी का इज़हार करते है व अनाज, पशुओं एवं देवतों से संबंधित गीतों के साथ नाचते गाते हैं।
आओ याद करें अपने पारम्परिक त्यौहारों को
रोजगार की खातिर हम शहरों में तो आ गए हैं किंतु दिलों में आज भी अपने गांवो को समेटे है पर केवल ऐसा करना मात्र ही उचित नहीं है बल्कि हमें अपनी भावी पीढ़ी को अपनी संस्कृति और तीज त्यौहारों से अवगत करना होगा। हालांकि कुछ सामाजिक संस्थाएं इस कार्य को वखूबी कर रही है और इगास बग्वाल व उत्तरायणी जैसे त्यौहारों को भी शहरों में बड़ी धूमधाम से मना रहे है जिसका नतीजा ये निकला कि आज युवा भी अपने इन त्यौहारों से भली- भांति परिचित हैं। जहां हम दूसरे प्रान्त के त्यौहारों को अपना रहे है जिनमें करवाचौथ भी एक है किंतु इगास के बाद आने वाली बैकुंठ चतुर्दशी को हमने भुला ही दिया है जो कि समाज हित में ठीक नहीं। उम्मीद करते हैं कि आप सब उत्तरायणी और इगास की तरह अपने अन्य त्यौहारों को भी धूमधाम से मनाएंगे।
आप सभी देशवासियों को दीपोत्सव के पावन पर्व पर दिव्य पहाड़ की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं ।
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