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मैं न चाहता युग-युग तक पृथ्वी पर जीना, पर उतना जी लूं जितना जीना सुंदर हो। मैं न चाहता जीवन भर मधुरस ही पीना, पर उतना पी लूं जिससे मधुमय अंतर हो।


श्रद्धांजलि 

मैं न चाहता युग-युग तक पृथ्वी पर जीना, पर उतना जी लूं जितना 

जीना सुंदर हो। मैं न चाहता जीवन भर मधुरस ही पीना, पर उतना 

पी लूं जिससे मधुमय अंतर हो। 


मेरे भावों का अभिमान तुम्हीं हो 

मेरी रचनाओं के श्रृंगार तुम्हीं हो 

करते लोग गुणगान प्रकृति समझ 

मेरे लिए तो जीवन प्राण तुम्हीं हो। 

प्रकृति के चितेरे कवी चंद्र कुंवर बर्तवाल जी का आज जन्मदिन है। अल्पायु में ही जीवन को अलविदा कहने वाले इस महान कवी ने अपने जीवन के अंतिम दिन प्रकृति के बीच एकाकी रहकर गुजारे थे। शायद यही कारण रहा कि उनकी कविताओं में जीवन बोध ज्यादा झलकता है। प्रकृति को उन्होंने जिया था जिसका पता उनकी प्रत्येक कविता में  दिखाई देता है। 

उन्होंने पद्य और गद्य दोनों ही विधा में काम किया था। हालांकि उनकी इन रचनाओं को उनके निधन के बाद ही पहचान मिली। इसका एक कारण यह था कि वो अपने लेखन को कहीं प्रकाशित नहीं कराते थे। हद से हद कभी अपने मित्रों को भेज दिया तो भेज दिया।  उनको छायावादी कवी माना जाता हैं। उत्तराखंड के जनपद रुद्रप्रयाग में मालकोटी पट्टी के नागपुर गांव में 20 अगस्त1919 को जन्मे बर्त्वाल जी की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही स्कूल से हुई उसके बाद उन्होंने 1935 में पौड़ी के इंटर कॉलेज से हाई स्कूल करने के बाद लखनऊ और इलाहाबाद से उच्च शिक्षा ग्रहण की लेकिन 1941 में एम.ए. करने के दौरान उनकी तबियत अचानक से ख़राब हो गई और वे पढाई छोड़ अपने गांव आ गए। वे कहते थे कि -

प्यारे समुद्र मैदान जिन्हें 

नित रहे उन्हें वही प्यारे 

मुझको हिम से भरे हुए 

अपने पहाड़ ही प्यारे 

पावों पर बहती है नदिया

करती सुतीक्षण गर्जन धवानिया

माथे के ऊपर चमक रहे

नभ के चमकीले तारे है

आते जब प्रिय मधु ऋतु के दिन

गलने लगता सब और तुहिन

उज्ज्वल आशा से भर आते

तब क्रशतन झरने सारे है

छहों में होता है कुजन

शाखाओ में मधुरिम गुंजन

आँखों में आगे वनश्री के

खुलते पट न्यारे न्यारे है

छोटे छोटे खेत और

आडू -सेबो के बागीचे

देवदार-वन जो नभ तक

अपना छवि जाल पसारे है

मुझको तो हिम से भरे हुए

अपने पहाड़ ही प्यारे है

अपने जीवन के अंतिम संघर्षपूर्ण जीवन में उन्हें 1939 से 1942 तक महाकवि सुमित्रानंदन पंत और निराला जी का सानिध्य प्राप्त हुआ था। उनकी प्रमुख कृतियों में विराट ज्योति, कंकड़-पत्थर, पयस्विनी, काफल पाक्कू, जीतू, मेघ नंदिनी हैं। साहित्य जगत को समृद्ध साहित्य का खजाना सौंप उन्होंने 14 सितंबर 1947 को जीवन को अलविदा कह दिया। 

आओ हे नवीन युग

आओ हे सखा शांति के

चलकर झरे हुए पत्रों पर

गत अशांति के ।

आओ बर्बरता के शव पर

अपने पग धर,

खिलो हँसी बनकर

पीड़ित उर के अधरों पर ।

करो मुक्त लक्ष्मी को

धनियों के बंधन से

खोलो सबके लिए द्वार

सुख के नंदन के ।

दो भूखों को अन्न और मृतकों को जीवन

करो निराशों में आशा के बल का वितरण ।

सिर नीचा कर चलता है जो,

जो अपने को पशुओं में गिनता है

रहता हाथ जोड़ जो उसे गर्व दो तुम

सिर ऊँचा कर चलने का

ईश्वर की दुनिया में भेद न होए कोई

रहें स्वर्ग में सभी, नरक सुख सहे न कोई ।

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