गिर्दा की याद गिर्दा के बाद
दिन- 22 अगस्त 2022
स्थान- भागीरथी हाल, गढ़वाल भवन, नई दिल्ली
अवसर- गिरीश चंद्र तिवारी " गिर्दा" की 12वीं पुण्यतिथि
समय - 4 बजे सायंकाल
कार्यक्रम संयोजक - चारु दा उत्तराखंड के इनसाईक्लोपीडिया
चंद्र सिंह रावत "स्वतंत्र"
9 सितंबर 1945 को उत्तर प्रदेश के हिमालयी जनपद अल्मोड़ा, ग्राम ज्योलि में "गिर्दा" गिरीश चंद्र तिवारी का शुभजन्म ईजा जीवंती देवी और बब्बा हंसा दत्त तिवारी के घर हुआ। गिर्दा की प्राथमिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई। उसके बाद वह रोजगार की ढूंढ़खोज में पीलीभीत, अलीगढ़ तथा लखनऊ इत्यादि शहरों में रहे। साल 1967 में गिर्दा को गीत और नाटक विभाग लखनऊ में नौकरी मिल गई।
गिर्दा बिल्कुल ही मनमौजी, घुमक्कड़ी, फक्कड़ी, मस्त मलंग प्रकृति के धनी व्यक्ति थे जो सदैव खद्दर पहनते थे।
गिर्दा ने अनेक ज्वलंतशील, समसामयिक तथा अंधविश्वासों पर करारा प्रहार करने के उद्देश्यों के लिए रचनात्मक कवितायें लिखी। सर्वहारा उनका सबसे पसंदीदा विषय रहा है। सर्वहारा वर्ग की परेशानियों और कठिनाइयों को उन्होंने अपनी कविताओं में प्रमुखता दी। देश में जो समसामयिक समस्याएं जन्म लेती थीं तब गिर्दा जनता की आवाज बन जाते थे यह उनकी समस्या बन जाती थी। जल, जंगल, जमीन, नदी, भ्रष्टाचार, नशा, अफसरशाही सब पर गिर्दा गिद्ध की दृष्टि से चहुं ओर अवलोकन करते थे और अपनी कलम की धार को तेज करते हुए समाज में व्याप्त कुरीतियों/बुराइयों के प्रति सजग रहकर लेखन करते रहते थे।
गिर्दा ने दो नाटक नगाड़े खामोश हैं और धनुष यज्ञ लिखे। इतना ही नहीं उन्होंने अंधायुग, अंधेर नगरी चौपट राजा का भी सफल निर्देशन किया।
अनेक कवियों के साथ देश विदेश में उनकी जुगलबंदी उन लोगों के मनमस्तिष्क में सदैव के लिए अंकित है जिन्होंने उन्हें समीप से देखा है। श्री नरेन्द्र सिंह नेगी, स्वर्गीय चंद्र सिंह राही जी के साथ की गई उनकी जुगलबंदी सर्वदा स्मरणीय रहेंगी।
उनकी कविताओं की कुछ मुख्य पंक्तियां यहां दे रहा हूं।
जहाँ न बस्ता कंधा तोड़े,
ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहां न पटरी माथा फोड़े,
ऐसा हो स्कूल हमारा।।
एक तरफ बर्बाद बस्तियां,
एक तरफ हो तुम।
एक तरफ बर्बाद कस्तियां,
एक तरफ हो तुम।।
जैंता एक दिन तो आलो
उ दिन यो दूनी में।।
आज हिमाल तुमनकै धत्युछो
जागो जागो हे मेरा लाल।
उत्तराखंड मेरी मातृभूमि
मातृभूमि मेरी पितृभूमि।
ओ भूमि तेरी जै जै कारा
म्यार हिमाला।।
पहाड़, नदी, हिमालय के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर चुके गिर्दा ने 22 अगस्त 2010 को इस आनंदमयी/रहस्यमयी संसार से अलविदा कहा। उस दिन पूरे पहाड़ में शोक की लहर छा गई। वह पहाड़ के ही कवि नहीं थे गिर्दा पूरे देश और विश्व के कवि थे।
इस भावुक अवसर पर उनकी पुत्री भी उपस्थित हुईं। एक क्षण भी ऐसा नहीं रहा जब उनकी पुत्री के आंखों से अश्रु न छलके हों। उन्होंने एक शब्द कहा - बब्बा। जिस शब्द को आप हम सब भूल चुके हों, विस्मृत कर चुके हों उनके मुख से यह सुनकर सभी भावविभोर हो गए। उनकी पुत्री का आशय उनकी बहू से है। बहु ने बताया कि गिर्दा ने सदैव उन्हें बेटी/पुत्री का स्थान दिया इसलिए उनकी बेटी ने अपने पिता को कांधा भी दिया।
ऐसे थे गिर्दा हमारे।
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