उत्तराखंड की एतिहासिक धरोहर चांदपुर गढ़ी-जिसके सरंक्षण पर अब तक किसी भी सरकार ने नहीं दिया ध्यान।
इतिहासकारों के मुताबिक गढ़वाल में पहले कत्यूरी वंश का राज था जो जोशीमठ से चलाया जाता था लेकिन 8 वीं सदी में इसका प्रभाव कम होने लगा तो गढ़वाल में छोटे छोटे गढ़पतियों का उदय हुआ जिन्हे 52 गढ़ों के नाम से जाना जाता है। इन्हीं में पंवार वंश को सबसे शक्तिशाली माना गया है। कहा जाता है कि मालवा से एक राजकुमार कनकपाल यहां आया और उसका विवाह चांदपुर के राजा भानुप्रताप की बेटी से हुआ। उसकी कूटनीति और कार्यों से प्रभावित हो भानुप्रताप से उसे अपना राज्य सौंप दिया। इतिहासकारों के मुताबिक पंवार वंश के इस शक्तिशाली राजा कनकपाल को ही इस वंश का संस्थापक माना जाता है। कत्यूरी राजवंश के कुमाऊं चले जाने के बाद कनकपाल ने सभी गढ़ों को जीतकर अपने अधीन कर लिया और अपने राज्य की राजधानी चांदपुर को बनाया जिसे लोग चांदपुर गढ़ी के नाम से जानते है।
कहाँ स्थित है चांदपुर गढ़ी
चमोली जिले के कर्णप्रयाग रानीखेत राज मार्ग से लगभग 12-13 किलोमीटर आगे आदिबद्री से कुछ ही दूरी पर स्थित है चांदपुर गढ़ी। सड़क से 500 मीटर ऊपर एक किला है जिसकी बाहरी दीवारें लगभग 3-4 फुट ऊँची होंगी उनसे अंदर जाते ही कुछ कमरों, किचन, स्नानागार आदि के अवशेष दिखाई देते है जिसमें लगाए गए पत्थर करीब एक से दो फिट मोटे होंगे जिनकी दीवारों पर बेहतरीन नक्काशी का नमूना नज़र आता है जिससे प्रतीत होता है कि इस युग में कला का विशेष महत्त्व रहा होगा। इसके साथ ही जो एक महत्वपूर्ण बात है वह यह की किले के चारों ओर पत्थर से बने पानी निकासी के द्वार और नालियां है जिन्हे देखकर अंदाज़ा लगाना आसान होगा कि सफाई व्यवस्था कितनी दूरस्थ रही होगी। वही महल के बाहरी ओर एक कुवें का निर्माण भी किया गया था। इस दुर्ग (किले) की सीढ़ियाँ दो टन वजनी पत्थर की शीलाओं से निर्मित थी। जिसके बारे में लोक कथा है कि यह शिला खण्ड दुधातोली के खानों से सौंरु और भौंरु नामक भड़ों (वीरों) द्वारा लाए गए थे। ये भड़ चांदपुर गढ़ी के डांडा मंज्याणी गांव के थे। आज भी कांसुआ के ऊपर घंडियालधार में इन वीरों की खंडित मूर्तियां इनकी वीरगाथा की कहानी कहते हैं। यहाँ आपको एक सुरंग भी दिखाई देगी जिसका दूसरा सिरा लगभग 500 मीटर निचे आटा गाड़ की तरफ दिखाई देता है जिससे अंदाज़ा लगता है कि उस समय इसी रास्ते से पानी महल में पहुँचाया जाता होगा। महल के बीचों बीच राजराजेश्वरी नंदा देवी का मंदिर है जो यहाँ की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है। कहा जाता है कि पंवार वंश के राजा शीशपाल ने मां नंदा को 12 वर्षों में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की थी जिसे अब लोग राजजात के नाम से जानते है। आज भी उनके वंशजो के द्वारा ही इस यात्रा का शुभारम्भ किया जाता है।
ऐतिहासिक ही बल्कि धार्मिक और पर्यटन की दृष्टि से भी है महत्वपूर्ण
गढ़वाल के 52 गढ़ों की राजधानी जिसमें रहकर अनेकों राजाओं ने गढ़वाल का शाशन चलाया हो उसका वजूद आज भी है। जब गोरखाओं का गढ़वाल पर आक्रमण हुआ तब जाकर राजधानी को यहाँ से हटाकर श्रीनगर स्थांतरित किया गया इसके आलेख एवं शिलालेख अब भी आपको यहाँ देखने को मिल जाएंगे इसके अलावा महल के प्रांगण में स्थित खूबसूरत नक्कासी लिए मंदिर और इससे जुडी राजजात यात्रा धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है और आज भी अधिकतर लोग इस स्थान को चांदपुर गढ़ी राजजात के नाम से ही जानते है। इसके नज़दीक ही आदिबद्री मंदिर स्थित है जिसे बद्रीनाथ मंदिर के समान ही माना जाता है और इसकी स्थापना आदिगुरु शंकराचार्य ने की ऐसा इतिहास में पाया जाता है।
ऐतिहासिक, धार्मिक और पर्यटन की दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण होने के बाद भी उत्तराखंड की सरकारों ने अब तक इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जबकि ये स्थान न केवल राज्य की आर्थिकी को मजबूत कर सकता है बल्कि रोजगार की कई राहें खोल पलायन को रोकने में महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकता है।
एक पहाड़ी पर स्थित यह किला आपको न केवलआकर्षित करता है बल्कि इसके चारों ओर खूबसूरत पहाड़ियां, दूधातोली पर्वत जो कि कुमाऊं से लगता है अपने खूबसूरत नजारों से आपको अपनी ओर खींचता है तो इसके ठीक सामने नौटी गांव की खूबसूरती नज़र आती है यही नहीं यहाँ से लगभग पांच किलोमीटर ऊपर खूबसूरत काफल के जंगलों से होते हुए आप बिनताल पहुंचकर मखमली घास (बुग्याल)और हिमालय की खूबसूरत चोटियों का आनंद उठा सकते है। वापसी में आप सिमली नामक स्थान में आकर पिंडर नदी के शीतल जल में स्नान करके मां चंडिका के दर्शन कर कर्णप्रयाग में अलकनंदा और पिंडर नदी के संगम का नज़ारा देख सकते है।
चांदपुर गढ़ी जाने के लिए आप ऋषिकेश से कर्णप्रयाग होकर और अल्मोड़ा से सड़क मार्ग द्वारा पहुँच सकते है। अब एक राश्ता पौड़ी से राठ होते हुए नौटी और नौटी से चांदपुर गढ़ी के लिए आता है।
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