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उत्तराखंड : कलश' संस्था के संयोजन में गढ़वाली भाषा, वर्णमाला और कविता लेखन पर कार्यशाला का आयोजन

उत्तराखंड : कलश' संस्था के संयोजन में गढ़वाली भाषा, वर्णमाला और कविता लेखन पर कार्यशाला का आयोजन


साहित्यिक कार्यशाला : गढ़वाली भाषा की वर्णमाला, लिंग, वचन और गढ़वाली कविता व कहानी लेखन पर दो दिवसीय कार्यशाला का शुभारंभ आज देहरादून में लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी जी के करकमलों से हुआ।

गढ़वाली भाषा-साहित्य के संरक्षण व सम्वर्द्धन में प्रयासरत 'कलश' संस्था के संयोजन में आयोजित इस कार्यशाला का प्रारंभ कलश के संयोजक ओमप्रकाश सेमवाल के स्वागत सम्बोधन से हुआ। सेमवाल जी ने कहा कि कवि सम्मेलन आदि का आयोजन तो बहुत हो रहा है परंतु भाषा के संरक्षण के लिए गम्भीर प्रयास करने की आवश्यकता है। इसी प्रयोजन से इस कार्यशाला का आयोजन किया गया है।

इस अवसर पर अपने विचार रखते हुए गढ़वाली भाषा के जानकार रमाकांत बेंजवाल जी ने कहा कि भाषा का मानकीकरण एक दिन में पूर्ण होने वाला कार्य नहीं है बल्कि यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। उन्होंने इन कार्यशालाओं के दस्तावेजीकरण को भी महत्वपूर्ण बताया। "गढ़वाली भाषा में ध्वनि और वर्णमाला" विषय पर अपने व्याखान में कहा कि मौखिक परम्परा से भाषा को लिखित रूप में स्थापित करने के लिए लिपि की आवश्यकता है। उन्होंने गढ़वाली में प्रयुक्त 'ळ' वर्ण का प्रयोग वैश्विक फलक को देखते हुए करने पर बल दिया।

इस कार्यक्रम में प्रतिभाग करते हुए गढ़वाली कवि देवेंद्र प्रसाद जोशी ने 'गढ़वाली कविता में कथ्य' विषय पर अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि समय के साथ साथ कविता के कथ्य में भी परिवर्तन करने की जरूरत है।

गढ़वाली भाषा की व्युत्पत्ति पर शोध कर रहे युवा रोहित गुसाईं ने गढ़वाली शब्दों की व्युत्पत्ति पर अपना संक्षिप्त वक्तव्य रखा।

गढ़वाली भाषा पर आयोजित इस कार्यशाला में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने कहा कि आज गढ़वाली भाषा में इस तरह के आयोजन समय की आवश्यकता है। इससे नयी पीढ़ी अपनी भाषा से जुड़ सकेगी। नेगी जी ने कहा कि पहले हमें अपने समाज के बीच भाषा को बचाने का प्रयास करना चाहिए, तभी आज के वैश्विक युग में हम अपनी भाषा बचा सकते हैं।

इसी क्रम में मे प्रेम मोहन डोभाल ने गढ़वाली में गहन अध्ययन करने की आवश्यकता पर बल दिया।

इस कार्यशाला में 'गढ़वाली कविता का इतिहास' विषय पर गिरीश सुंदरियाल ने कहा कि गढ़वाली कविता का इतिहास बहुत पुराना है। उन्होंने कहा कि लगभग सन् 1750 से गढ़वाली कविता के लेखन की शुरुआत होती है जिसके बाद सृजन परम्परा आज तक निरंतर चल रही है। 'गढ़वाली कविता में शिल्प' विषय पर बीना बेंजवाल जी ने अपना विस्तृत व्याखान रखा। कार्यक्रम के प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रेम मोहन डोभाल व द्वितीय सत्र की अध्यक्षता जीवंती खौयाल जी ने की।

इसके उपरांत कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें नई व पुरानी पीढ़ी के कई कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया।

कार्यशाला का संचालन गणेश खुगशाल गणी ने किया।

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