चंद्र सिंह रावत “स्वतंत्र”
हर तीन वर्षों के उपरांत गाँव में जतोड़ा (मां भगवती का मेला) होता है। वर्षों से परंपरा के नाम पर मां भगवती को भैंसा और मेढ़ा (खाड़ू) चढ़ाया जाता है। यह वर्षों पुरानी मान्यता और परंपरा है। इसी मान्यता और परंपरा के निर्वहन हेतु आज भी इस परंपरा को तोड़ने को कोई भी ग्रामवासी तैयार नहीं हैं। सब, उन्हीं पुरानी मान्यताओं और परंपराओं का राग आलाप रहे हैं।
वैसे तो समस्त राज्यों के उच्च न्यायालय के आदेश है कि बलि के नाम पर मुर्गा/मुर्गी भी नहीं काटी जानी चाहिए। उच्च न्यायालय के इस आदेश को माननीय सर्वोच्च न्यायालय में भी चुनौती दी गई है किंतु माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को उचित और तार्किक बताया और पुनर्विचार से इनकार कर दिया। मूक/निरीह/बेजुबान जीवों की बलि के नाम पर निर्मम हत्या को कुरीति/अनीति/दुराचार/व्यभिचार की श्रेणी में रखा है।
कई स्थानों पर तो मानव बलि की भी बात की गई है किंतु जैसे जैसे इंसान समझदार होता गया उसने अपने को संरक्षण देने के निमित पशुओं को बलि का बकरा बनाया। जैसे जैसे समाज ने तरक्की की और उन्नत शिक्षा प्राप्त की उसने पशु बलि देना बंद कर दिया और जायफल और श्रीफल से ही देवों को प्रसन्न करने लगा। लगभग समस्त भारत में यह बलि प्रथा चलती रही। कुछ सामाजिक संगठन मूक जानवरों के हित में आगे आए और उन्होंने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और अपनी दलीलें प्रस्तुत कीं। याची ने अपनी दलीलों में पशु बलि को कुरीति बताया। पशु अत्याचार बताया। इंसान की बर्बरता बताया। दोनों तरफ की बहसों को सुनने के उपरांत न्यायालयों ने धार्मिक अनुष्ठानों में पशु बलि को क्रूरता की संज्ञा दी और इस रोक के लिए सख्त कानून बनाए। न्यायालय में पशु बलि को अमानवीयता की पराकाष्ठा बताया गया है।
मैंने, इस लेख को आपके सामने प्रस्तुत करने के पूर्व विभिन्न राज्यों और उत्तराखंड के विभिन्न जनपदों के जन-प्रतिनिधियों से संपर्क कर बलि प्रथा के बारे में जानकारी ली। तब लगभग 95 प्रतिशत जन-प्रतिनिधियों ने स्वीकार किया कि 50/60 से अधिक वर्षों पूर्व उनके गाँव -घरों में बलि दी जाती थी किंतु यह बीते समय की बातें हैं अब किसी भी क्षेत्र से बलि देने की घटनाएं सुनने को नहीं मिलती हैं।
कुछ समाज सेवियों ने इस प्रथा को अशिक्षा से भी जोड़कर देखा। उनका कहना है कि जिस क्षेत्र में शिक्षा उच्च स्तर की होती रही, क्षेत्र के लोग शिक्षित होते गए तो उन्होंने इन कुप्रथाओं का घोर विरोध किया और इन्हें समूल नष्ट करने की दिशा में सार्थक पहल/कदम उठाए। जिन स्थानों/ क्षेत्रों में उच्च शिक्षा नहीं मिली वहां पर आज भी दैवीय शक्तियों को प्रसन्न करने हेतु पशु बलि दी जा रही है और न्यायालय और प्रशासन को ठेंगा दिखाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जा रही है।
यध्यपि प्रशासन अपनी ओर से चाक-चौबंध रहता है किंतु कुछ लोग आज भी अमानवीयता की सीमाओं को लांघने का प्रयास करते हैं। शासन/प्रशासन को सामाजिक संगठनों को साथ में लेकर इन कुरीतियों को समाप्त करने/जड़ से समूल उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से विचार गोष्ठियाँ/नुक्कड़ नाटक करने/करवाने चाहिए ताकि समाज में नव जागृति/चेतना उत्पन्न हो।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम 2022 के अत्याधुनिक भारत में जी रहे हैं और आज से लगभग 250 वर्षों पूर्व राजा राम मोहन राय (22 मई 1772-27 सितंबर-1833) को भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत का जनक माना जाता है। उनका सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में विशिष्ठ स्थान रहा है। उन्होंने सती प्रथा, बाल-विवाह, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा, अंधविश्वास और समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने की दिशा में ऐसा कार्य किया जिसे कदापि विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए।
किसी भी सभ्यता/समाज की तरक्की के लिए यह आवश्यक है कि हम दकियानूसी सोच से आगे बढ़ें। ग्राम/क्षेत्र/जनपद/प्रांत/राष्ट्र और विश्व कल्याण के लिए एक मुहिम चलाएं ताकि इस धरा को बचाया जा सके। हम अपने बच्चों को एक नवीन सभ्यता और समाज के दर्शन कराएं।
मेरी इस मुहिम में आप हृदय खोलकर अपने सुझाव दें, आलोचना करें, समालोचना करें, अपना पक्ष रखें, तभी हम एक विकसित समाज की कल्पना कर सकते हैं।
कैसे किसी निरीह की बलि देकर हम अपने भले की सोच सकते हैं। एक प्रश्न आपके सामने?
सवाल यह उठता है कि क्या बलि प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा है? यदि वेद और पुराणों की मानें तो नहीं। हालांकि वेद, उपनिषद और गीता ही एकमात्र धर्मशास्त्र है। पुराण या अन्य शास्त्र नहीं। यदि वेद, उपनिषद और गीता इसकी इजाजद नहीं देती तो फिर यह प्रथा क्यों?
पशु बलि प्रथा के संबंध में पंडित श्रीराम शर्मा की शोधपरक किताब 'पशुबलि : हिन्दू धर्म और मानव सभ्यता पर एक कलंक' पढ़ना चाहिए।
'' न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।'- सामवेद-2/7
अर्थ : ''देवों! हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं, वेद मंत्र के आदेशानुसार आचरण करते हैं।''
वेदों में ऐसे सैकड़ों मंत्र और ऋचाएं हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में बलि प्रथा निषेध है और यह प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। जो बलि प्रथा का समर्थन करता है वह धर्मविरुद्ध असुर और दानवी आचरण करता है।
चंद्र सिंह रावत “स्वतंत्र” 24 दिसंबर 2022 मां भगवती को भैंसा और मेढ़ा (खाड़ू) चढ़ाया जाता है। यह वर्षों पुरानी मान्यता और परंपरा है। इसी मान्यता और परंपरा के निर्वहन हेतु आज भी इस परंपरा को तोड़ने को कोई भी ग्रामवासी तैयार नहीं हैं। सब, उन्हीं पुरानी मान्यताओं और परंपराओं का राग आलाप रहे हैं।
वैसे तो समस्त राज्यों के उच्च न्यायालय के आदेश है कि बलि के नाम पर मुर्गा/मुर्गी भी नहीं काटी जानी चाहिए। उच्च न्यायालय के इस आदेश को माननीय सर्वोच्च न्यायालय में भी चुनौती दी गई है किंतु माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को उचित और तार्किक बताया और पुनर्विचार से इनकार कर दिया। मूक/निरीह/बेजुबान जीवों की बलि के नाम पर निर्मम हत्या को कुरीति/अनीति/दुराचार/व्यभिचार की श्रेणी में रखा है।
कई स्थानों पर तो मानव बलि की भी बात की गई है किंतु जैसे जैसे इंसान समझदार होता गया उसने अपने को संरक्षण देने के निमित पशुओं को बलि का बकरा बनाया। जैसे जैसे समाज ने तरक्की की और उन्नत शिक्षा प्राप्त की उसने पशु बलि देना बंद कर दिया और जायफल और श्रीफल से ही देवों को प्रसन्न करने लगा। लगभग समस्त भारत में यह बलि प्रथा चलती रही। कुछ सामाजिक संगठन मूक जानवरों के हित में आगे आए और उन्होंने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और अपनी दलीलें प्रस्तुत कीं। याची ने अपनी दलीलों में पशु बलि को कुरीति बताया। पशु अत्याचार बताया। इंसान की बर्बरता बताया। दोनों तरफ की बहसों को सुनने के उपरांत न्यायालयों ने धार्मिक अनुष्ठानों में पशु बलि को क्रूरता की संज्ञा दी और इस रोक के लिए सख्त कानून बनाए। न्यायालय में पशु बलि को अमानवीयता की पराकाष्ठा बताया गया है।
मैंने, इस लेख को आपके सामने प्रस्तुत करने के पूर्व विभिन्न राज्यों और उत्तराखंड के विभिन्न जनपदों के जन-प्रतिनिधियों से संपर्क कर बलि प्रथा के बारे में जानकारी ली। तब लगभग 95 प्रतिशत जन-प्रतिनिधियों ने स्वीकार किया कि 50/60 से अधिक वर्षों पूर्व उनके गाँव -घरों में बलि दी जाती थी किंतु यह बीते समय की बातें हैं अब किसी भी क्षेत्र से बलि देने की घटनाएं सुनने को नहीं मिलती हैं।
कुछ समाज सेवियों ने इस प्रथा को अशिक्षा से भी जोड़कर देखा। उनका कहना है कि जिस क्षेत्र में शिक्षा उच्च स्तर की होती रही, क्षेत्र के लोग शिक्षित होते गए तो उन्होंने इन कुप्रथाओं का घोर विरोध किया और इन्हें समूल नष्ट करने की दिशा में सार्थक पहल/कदम उठाए। जिन स्थानों/ क्षेत्रों में उच्च शिक्षा नहीं मिली वहां पर आज भी दैवीय शक्तियों को प्रसन्न करने हेतु पशु बलि दी जा रही है और न्यायालय और प्रशासन को ठेंगा दिखाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जा रही है।
यध्यपि प्रशासन अपनी ओर से चाक-चौबंध रहता है किंतु कुछ लोग आज भी अमानवीयता की सीमाओं को लांघने का प्रयास करते हैं। शासन/प्रशासन को सामाजिक संगठनों को साथ में लेकर इन कुरीतियों को समाप्त करने/जड़ से समूल उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से विचार गोष्ठियाँ/नुक्कड़ नाटक करने/करवाने चाहिए ताकि समाज में नव जागृति/चेतना उत्पन्न हो।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम 2022 के अत्याधुनिक भारत में जी रहे हैं और आज से लगभग 250 वर्षों पूर्व राजा राम मोहन राय (22 मई 1772-27 सितंबर-1833) को भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत का जनक माना जाता है। उनका सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में विशिष्ठ स्थान रहा है। उन्होंने सती प्रथा, बाल-विवाह, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा, अंधविश्वास और समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने की दिशा में ऐसा कार्य किया जिसे कदापि विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए।
किसी भी सभ्यता/समाज की तरक्की के लिए यह आवश्यक है कि हम दकियानूसी सोच से आगे बढ़ें। ग्राम/क्षेत्र/जनपद/प्रांत/राष्ट्र और विश्व कल्याण के लिए एक मुहिम चलाएं ताकि इस धरा को बचाया जा सके। हम अपने बच्चों को एक नवीन सभ्यता और समाज के दर्शन कराएं।
मेरी इस मुहिम में आप हृदय खोलकर अपने सुझाव दें, आलोचना करें, समालोचना करें, अपना पक्ष रखें, तभी हम एक विकसित समाज की कल्पना कर सकते हैं।
कैसे किसी निरीह की बलि देकर हम अपने भले की सोच सकते हैं। एक प्रश्न आपके सामने?
सवाल यह उठता है कि क्या बलि प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा है? यदि वेद और पुराणों की मानें तो नहीं। हालांकि वेद, उपनिषद और गीता ही एकमात्र धर्मशास्त्र है। पुराण या अन्य शास्त्र नहीं। यदि वेद, उपनिषद और गीता इसकी इजाजद नहीं देती तो फिर यह प्रथा क्यों?
पशु बलि प्रथा के संबंध में पंडित श्रीराम शर्मा की शोधपरक किताब 'पशुबलि : हिन्दू धर्म और मानव सभ्यता पर एक कलंक' पढ़ना चाहिए।
'' न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।'- सामवेद-2/7
अर्थ : ''देवों! हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं, वेद मंत्र के आदेशानुसार आचरण करते हैं।''
वेदों में ऐसे सैकड़ों मंत्र और ऋचाएं हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में बलि प्रथा निषेध है और यह प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। जो बलि प्रथा का समर्थन करता है वह धर्मविरुद्ध असुर और दानवी आचरण करता है।
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