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उत्तराखंड में जोर पकड़ती वनाग्नि की घटनाएं


उत्तराखंड में जोर पकड़ती वनाग्नि की घटनाएं


इस विषय को हम तीन/चार चरणों में व्याख्यायित करेंगे।

चंद्र सिंह रावत " स्वतंत्र"


आग क्यों लगती है

ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड के जंगलों में आग इस वर्ष ही लग रही है। इस आग को हम कई वर्षों से देखते/सुनते आ रहे हैं। उत्तराखंड पृथक राज्य बनने के पूर्व भी उत्तराखंड के जंगलों में भीषण आग लगती थी या यूं कहें कि एक सुनियोजित/प्रायोजित सरकारी कार्यक्रम के अंतर्गत इसे अमलीजामा पहनाया जाता था और इसे साकार करने में समस्त सरकारी महकमा/तंत्र काम करता था। हम सुनते थे कि बड़े बड़े जंगल के ठेकेदार/वनाधिकारी/वन कर्मी इस दावानल के षड्यंत्र में सम्मिलित रहते थे और यह समस्त खेल आरक्षित वन क्षेत्र में होता था। वन विभाग से करोड़ों रुपए हड़पने के लिए यह खेल खेला जाता था। फिर भी यह वनाग्नि समाचार पत्रों की सुर्खियां नहीं बनती थी।

उत्तराखंड क्रांति दल (उत्तराखंड की एक स्थानीय राजनीतिक पार्टी) की दिन रात की तपस्या ने उत्तर प्रदेश से पृथक कर एक नया राज्य उत्तराखंड का निर्माण हुआ। उत्तर प्रदेश के कुछ मैदानी भाग जैसे हल्द्वानी, किच्छा, रुद्रपुर, रामनगर, काशीपुर, कोटद्वार, हरिद्वार, देहरादून आदि भी उत्तराखंड में सम्मिलित हुए। जैसे ही ये मैदानी भाग उत्तराखंड में मिले, उत्तराखंड के पहाड़ों से लोगों ने बेतहासा रूप से पलायन किया। पलायन दो प्रकार से हुआ। जो लोग उत्तराखंड में सरकारी सेवारत थे उन्होंने देहरादून, कोटद्वार, हरिद्वार, रामनगर, काशीपुर, हल्द्वानी, किच्छा, लालकुआं, रुद्रपुर, सितारगंज आदि स्थानों का रुख किया और जो लोग उत्तराखंड (पहाड़) में बेरोजगार थे उन्होंने उत्तराखंड से पूर्णतया पलायन किया। उन लोगों ने दिल्ली, चंडीगढ़, जयपुर, मुंबई, फरीदाबाद, गाजियाबाद और अन्यत्र स्थानों को अपना शरणस्थली बनाया। 

उत्तराखंड जन्मने से पूर्व लोग मैदानी भागों में सिर्फ अस्थायी रूप से रहते थे किंतु उत्तराखंड बनने के उपरांत लोगों ने इसे स्थायी निवास बना दिया। आज कहने को हम सभी अपने को उत्तराखंडी कहें मगर सच यह है कि उत्तराखंड में न तो हमारे पास आधार कार्ड, न राशन कार्ड, न पैन कार्ड, न निर्वाचन कार्ड, न पासपोर्ट है। हां हमारे पास है तो सिर्फ उत्तराखंड की रात दिन की चिंता। कभी हम सभी लोग खेती के समय बुआई, कटाई और घास कटाई के वक्त गांव जाते थे किंतु धीरे धीरे यह बंद हो गया और अब लोग उत्तराखंड में अपने देवी/देवताओं को मनाने के लिए/जागेरी लगाने के लिए और पितृ कुड़ी-कूड़ा रखने के जाते हैं। शादी व्याह तो साल दो साल में एकाध ही होते हैं क्योंकि नौजवान तो अब पहाड़ों में रहे नहीं।

उत्तराखंड बनने तक हम सभी लोग जंगलों से समस्त चीड़ की पत्तियां (पिरूल) गौशाला में लाते थे उसका ढेर लगाते थे और उसे साल भर तक के लिए सुरक्षित रखते थे। पालतू जानवरों ( गाय, बैल, भैंस, बकरियों) आदि के नीचे बिछावन के काम लाते थे। इस बिछावन को रोज बदला जाता था इसे सड़ाकर  गोबर (जैविक खाद) तैयार की जाती थी। इतना ही नहीं हम अपने सारे खेतों और गांव के समस्त जंगलों से घास काटकर घर के पास एकत्रित कर खूम (लूम, सुम) लगाते थे और इसी एकत्रित घास को हम पूरे वर्षभर मवेशियो को चारा देते थे। और जो छोटी छोटी घास रह जाती थी वह बकरियों और अन्य मवेशियों के चरने के काम आती थी। 

पहाड़ों से मानवों का पलायन शुरू हुआ तो गौशालाओं से मवेशी भी गायब हो गए। पिरूल और घास की जरूरत नहीं हुई तो लोगों ने जंगलों से उसे लाना बंद कर दिया। पिरूल और घास लाना बंद कर दिया तो चारों तरफ घास और चीड़ के पत्ते नजर आने लगे। पहाड़ी व्यक्ति तंबाकू/बीड़ी का शौकीन तो होता ही है। कहीं भी जाना हो तो जंगल से गुजरना ही पड़ेगा। एक चिंगारी पड़ी नहीं कि धू धू कर जंगल जल गया। कई बार यह आग मानवजनित होता है तो कई बार अकारण, भूलवश भी हो जाता है। कई बार ग्रामीण जमीन पर गिरी पत्तियों और घास में आग लगा देते हैं ताकि उसकी जगह नई घास उग सके। वहीं, दूसरा कारण चीड़ की पत्तियों में आग का भड़कना भी है। चीड़ की पत्तियों से निकलने वाला रसायन, लीसा बेहद ज्वलनशील होता है। जरा सी चिंगारी लगते ही आग भड़क जाती है और विकराल रूप ले लेती है। उत्तराखंड में करीब 15 से 16 फीसदी जंगल चीड़ के हैं। कम बारिश होना भी एक कारण है। बारिश न होने औऱ कम होने से जमीन में आद्रता/नमी कम हो जाती है इस कारण भी जंगलों में आग भड़क जाती है।

उत्तराखंड बनने के उपरांत जिन क्षेत्रों में विकास ने जोर पकड़ा वह हैं उत्तराखंड से पलायन, गौशालाओं का खंडहर होना, घर घर तक शराब की दुकानें, उत्तराखंड में वनाग्नि, जंगली जानवरों का गांव-घर तक पहुंच, भ्र्ष्टाचार में अप्रत्याशित वृद्धि, गांव गांव तक सड़क, हर घर जल योजना, हर घर शौचालय।

शौचालय की बात आ ही रही है तो आपको बता दें कि उत्तराखंड में एक शौचालय निर्माण में 1.2 लाख का खर्च हुआ और सरकार द्वारा दिए गए मात्र 12 हजार। जिन लोगों ने सरकारी तंत्र की मुट्ठी को गरम नहीं किया तो उनको वे 12 हजार अभी तक भी नहीं मिले हैं।

आज की स्थिति

24 घण्टे में 45 जंगल आग के हवाले हो रहे हैं। वन विभाग के 1200 कर्मचारी आग बुझाने के काम में लगे हुए हैं। एन डी आर एफ के जवानों और 2 हेलीकॉप्टरों को भी आग बुझाने के काम लगाया गया है। आग लगने की वजह से लगभग 1 करोड़ रुपये की गैर सरकारी संपत्ति नष्ट हो चुकी है। अभी तक 1500 से अधिक वनाग्नि की घटनाएं घट चुकी हैं जिसकी वजह से लगभग 2500 हैक्टेयर वन संपदा स्वहा हो चुकी है और एक व्यक्ति के मौत की भी पुष्टि हो चुकी है। वन विभाग और सरकार के पास कोई ठोस योजना इसके निपटने हेतु नहीं है। न ही कोई वैज्ञानिक तकनीक उपलब्ध है जबकि बाहरी देशों में बड़े - बड़े यंत्र और फायर ब्रिगेड होलिकाप्टरों से आग बुझाई जाती है। नारायण दत्त तिवारी जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब उत्तराखंड के जंगलों की आग बुझाने के लिए विश्व बैंक से एक परियोजना स्वीकृत की थी। उस वक्त बड़े-बड़े बुलडोजर फायर लाइन बनाने के लिए खरीदे गए किंतु वो पहाड़ पर चढ़ नहीं पाए और यहीं कबाड़ बन गए।

राष्ट्रीय संपदा और पर्यावरण को नुकसान

यह वनाग्नि पर्यावरण और इकोसिस्टम को बर्बाद कर रहा है। आग लगने से 2-3 डिग्री तापमान भी बढ़ जाता है। साथ ही इससे निकलने वाली गैस भी इंसान और जानवरों के लिए हानिकारक है। करोड़ों/अरबों की वन संपदा आग में समाहित हो जाती है। जिससे राज्य सरकार के राजस्व की हानि होती है। जंगली जानवर जंगलों से रिहायशी इलाकों की तरफ अपने कदम रखते हैं और मानवों का जीना दूभर करते हैं।

निदान क्या हो

वन विभाग, राज्य सरकार और केंद्र सरकार मिलकर काम करें। ऊंचे जंगलों में तालाब बनाए जाएं। बरसात के पानी से तालाबों को भरा जाए। स्थानीय लोगों को सुखी घास, पत्ते और पिरूल इकट्ठा करने हेतु संविदा पर रखकर इसका उचित उपचार हो। जो आरक्षित वन है उसकी पूर्ण देखरेख वन विभाग करे और जो सिविल भूमि या अनारक्षित वन है उसकी देखभाल ग्राम सरपंच, ग्राम सभा सभापति और स्थानीय पटवारी करें। अनारक्षित वन क्षेत्र से सरकारी सहायता से घास कटान कार्य हो। जो भी लोग जंगलों में आग लगाएं उन्हें दंडित करने का प्रावधान हो। किंतु स्थानीय प्रशासन और सरकारी तंत्र पूरी ईमानदारी से अपने काम को अंजाम दे। सरकारें ईमानदारी से इस तरफ ध्यान दें। प्रत्येक ग्रामवासी और ग्राम अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए गांव के अंदर झाड़ियों और गांव की सरहद में पैदा हुए झाड़ झंखाड़ को उखाड़ फेंकें। इसके लिए समस्त ग्राम इकाई को एकता का परिचय देना होगा। मुझे भी व्यक्तिगत रूप से इस महायज्ञ में सम्मिलित होना होगा।

मैं क्या कर सकता हूँ

अपने घर के आसपास जंगली घास को समूल नष्ट कर दूं। अपने व्यक्तिगत जंगलों की घास को काटकर गौशाला तक पहुंचवा दूं। मैं का अर्थ हम सब के लिए है। 






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