फोटो आभार दिनेश थपलियाल
गुणों से भरपूर भीमल से अब पहाड़ के लोग बन रहे आत्मनिर्भर
उत्तराखंड में कुछ बृक्ष ऐसे होते है जो आवादी के पास रहना ज्यादा पसंद करते है जिनमें से एक है भीमल जिसे स्थानीय लोग भीकू, भीमू, भियूल, भिंकोल के नाम से जानते हैं। भीमल का वानस्पतिक नाम ग्रेविया अपोजिटिफोलिया है और इसे वंडर ट्री के नाम से भी जाना जाता है। यह समुद्रतल से 2000 मीटर की ऊंचाई पर पाए जाते है। स्वतः ही उगने वाला यह वृक्ष अधिकतर खेतों की मुंडेर पर होता है और इसका हर भाग मनुष्य एवं पशुओं के लिए काफी लाभदायक है।
वर्षों पूर्व पहाड़ों में जब साबुन उपलब्ध नहीं थे तो लोग नहाने व् कपडे धोने के लिए इसकी छाल का उपयोग करते थे। इसकी छाल को थोड़े से पानी में कुछ देर के लिए भिगो कर रख दिया जाता था जिससे यह झाग बना देता था उसी झाग से नहाने पर बाल मुलायम व चमकदार होते थे और कपड़ों की मैल भी आसानी से निकल जाती थी। अब कुछ लोग इसका शैम्पू बना रहे हैं जिसकी मार्किट में काफी डिमांड है। इसका एक औषधि के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। यदि शरीर में कोई चोट है या फिर दर्द हो रहा है तो इसके घोल को गोमूत्र में मिलाकर दर्द वाले स्थान पर शेक करें तो काफी आराम मिलता है। कहते है भीमल का पौधा बड़ा स्वाभिमानी होता है यदि इसे एक स्थान से निकालकर दूसरे स्थान पर लगाएं तो ये सूख जाता है और फिर किसी काम का नहीं रहता यहाँ तक कि इस अवस्था में इसकी लकड़ी भी काम नहीं आती और ये मिट्टी में मिलकर गल जाता है।
Photo credit by Manoj Chamoli
भीमल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल चारे के रूप में किया जाता है। इसके हरे हरे पत्तों को जानवर खूब शौक से खाते हैं भरपूर पौष्टिक गुणों के कारण यह दुधारू जानवरों के दूध बढ़ाने में काफी कारगर होता है। शरद ऋतू में जब पाले की वजह से घास फूस और सभी पेड़ सूखने लगते है तब यह खूब हरा भरा रहता है इसलिए इस समय यह पशुओं के चारे के रूप में खूब इस्तेमाल किया जाता है।
पहाड़ों में जानवरों को बांधने व अन्य भारी चीजों को बांधने के लिए प्रयोग होने वाली रस्सी इसकी टहनियों से बनाई जाती थी। इसकी टहनियों से पत्ते निकलकर उन्हें किसी गदरे या पानी में भिगोकर रख दिया जाता है और फिर कुछ दिन वही दबाकर रखने के बाद जब यह सड़ जाता है तब इसे वहां से निकालकर रेशे निकाले जाते है। उस समय इससे बहुत ही गंध आती है और जो इन्हें निकालते हैं उनके हाथों में भी कुछ दिनों तक ये गंध बनी रहती है। इन रेशों को हाथों की उंगली से कंघी कर अलग किया जाता है फिर तीन रेशों को बटकर रस्सी बनाई जाती है। ये रस्सी प्लास्टिक की रस्सी से काफी मुलायम और मजबूत होती है। जानवरों को बांधने से गले में इससे रगड़ नहीं पड़ती साथ ही घसियारियां घास के बंडल को बांधकर लाती है इसके अलावा कंडो में भी इसको बांधा जाता है और कोई भी भारी चीज को इससे आसानी से बांधकर उठाया जा सकता है। उत्तराखण्ड के गांवो में जब टॉर्च नहीं हुआ करते थे तब लोग इसकी लकड़ियों का गट्ठा (जिसे छिल्ला कहा जाता है ) बना.कर उसे जलाकर ले जाते थे और यदि घर में माचिस नहीं है तो दूसरे के घर से इन्हें जलाकर ही आग ले जाते थे।
रोजगार की दृष्टि से भी यह वृक्ष काफी उपयोगी साबित हो रहा है। पहाड़ के लोग इससे निर्मित हस्तकला की वस्तुओं से अपनी आर्थिक स्थिति को सुधार रहे हैं। अब तो इसकी छाल से चप्पलें तक बनाई जा रही है जिसे फ़्रांस में काफी पसंद किया जा रहा है और फ़्रांस ने उत्तराखंड सरकार को हज़ारों रूपये का आर्डर भी दिया है जिसे देखते हुए उत्तराखंड सरकार ने भीमल के सरक्षण के लिए कार्य करना आरंभ कर दिया है।
चूंकि ये अवादी को ज्यादा पसंद करता है और उसके आस पास ही उगता है इसके अलावा अन्य कही यह वृक्ष आपको दिखाई नहीं देगा। जिस तेजी के साथ पहाड़ों से लोगों का पलायन हो रहा है और जानवर भी नहीं है तो उसी तेजी से ये भी उजड़ने के कगार पर है। आवादी के आस पास उगने वाली और भी वनस्पतियां है जो जीवन की रक्षा करती है। हमारा मानना है कि हिमालय तभी बचेगा जब वहां रहने वाले मानव और ये वनस्पतियां सुरक्षित रहेंगी ।
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