बग्वाल खेल के लिए जाना जाता है देवीधुरा का मां बाराही मंदिर
(बग्वाल (दिवाली) आने को है और इस नाम को सुनते ही जहन में उत्तराखंड के देवीधुरा में स्थित मां बाराही का मंदिर घूमने लगता है। कहते हैं कि मां बरही देवी का अवतरण देवीधुरा में हुआ तो उस समय यहां नरभेध यज्ञ जो कई वर्षों तक चलते रहे। यहां एक ऐसा गण था जिसे हर वर्ष नर बलि दी जाती थी और इस बलि को चरों दिशाओं के सेवक जिनमें चम्याल, वालिक, लमगड़िया, और गहड़वाल यह चारों बारी बारी से हर वर्ष बलि दिया करते थे। किंतु कुछ वर्षों से बलि प्रथा को समाप्त कर पत्थरों से खूनी खेल खेला जाने लगा जिसका नाम बग्वाल रखा गया । हालांकि अब यह खेल फलों से खेला जाता है। यही नहीं यह मंदिर अपने अंदर कई रहस्य लिए हुए है।)
उत्तराखंड में स्थित हर मंदिर का अपना अलग अलग अस्तित्व व महत्त्व है। लेकिन कुछ ऐसे मंदिर है जिनकी एक अलग ही मान्यता है जिनमे से एक देवीधुरा का मंदिर। मां बाराही देवी का मंदिर चम्पावत जिले में अल्मोड़ा-लोहाघाट मार्ग पर ढोलीगाँव-देवीधुरा पर्वतमाला के उत्तर-पश्चिम छोर पर समुद्र तल से लगभग 2500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है जो प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से अत्यन्त रमणीक है। बाराही मां के इस मंदिर को देवीधुरा के नाम से भी जाना जाता है। यह एक शक्तिपीठ है और 52 पीठों में से एक माना जाता है। देवीधूरा में वाराही देवी मंदिर शक्ति के उपासकों और श्रद्धालुओं के लिये पावन और पवित्र स्थान है | यहां पहुंचकर आपको अलग ही अलौकिक आनंद की अनुभूति होगी।
बाराही मंदिर का इतिहास
हमारे इतिहासकारों के मुताबिक चन्द राजाओं के शासन काल में इस सिद्ध पीठ में चम्पा देवी और ललत जिह्वा महाकाली की स्थापना की गई थी। तब “लाल जीभ वाली महाकाली" को महर और फर्त्यालो द्वारा बारी-बारी से हर साल नियमित रुप से नरबलि दी जाती थी। कहा जाता है कि जब रुहेलों ने इस क्षेत्र में आक्रमण किया तो उस समय कत्यूरी राजाओं द्वारा इस मूर्ति को घने जंगल के बीच एक भवन में स्थापित कर दिया गया था। समय के साथ-साथ इस मंदिर के चारों ओर अनेकों गांव स्थापित हो गये और ये मंदिर लोगों की आस्था का केन्द्र बिंदु बन गया। यह भी कहा जाता है कि अपने अज्ञातवास के दौरान पांडव ने भी कुछ दिन इस स्थान पर बिताये और खेल-खेल में भीम ने पहाड़ी के छोर पर शिलायें फेंकी थी | ग्रेनाइट की इन विशाल शिलाओं में से दो शिलायें आज भी मन्दिर के निकट मौजूद हैं। जिनमें से एक को राम शिला कहा जाता है। जनश्रुति के अनुसार यहां पर पाण्डवों ने जुआ खेला था। ‘पचीसी’ नामक जुए के चिन्ह आज भी विद्यमान हैं । उसी के समीप दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं।
मंदिर से जुडी पौराणिक कथाएं
पौराणिक कथाओं के अनुसार ऐसी मान्यता है कि घ्रणाक्ष नमक दैत्य पृथ्वी को उठाकर पाताल लोक ले गया और जब सम्पूर्ण पृथ्वी जलमग्न थी तब प्रजापति ने बाराह बनकर उसका दाँतो से उद्धार किया और उसे जल मे मघ्य से अपने दन्ताग्र भाग में उपर उठा लिया। यही सृष्टि माँ वाराही हैं।
ये स्थान गुह्य काली की उपासना का केन्द्र था। जहां किसी समय में काली के गणों को प्रसन्न करने के लिये नरबलि की प्रथा थी। इस प्रथा को कालान्तर में स्थानीय लोगों द्वारा बन्द कर दिया गया। देवीधूरा के आस-पास निवास करने वाले लोग वालिक, लमगड़िया, चम्याल और गहडवाल खामों के थे, इन्हीं खामों में से हर साल एक व्यक्ति की बारी-बारी से बलि दी जाती थी। ऐसे चलते चलते एक दिन चम्याल खाल की बारी आती है जिसमें केवल एक बृद्धा और उसका पोता ही बचा होता है। बृद्ध महिला मां की उपासना करती है और कहती है कि मेरा सहारा तो केवल मेरा पोता ही बचा है जिसे में बलि नहीं चढ़ने दे सकती तो मां उनके दर्द को समझकर अपने दर्शन देती है और कहती है कि आप कोई वर मांगें तो बृद्धा कहती है कि मां मुझे वर में नरबलि को खत्मकर अष्टबलि और बग्वाल करने की अनुमति दें। मां ने उन्हें ये वर सहर्ष दे दिया और कहते हैं की तभी से नर बलि बंद कर दी गयी और “बग्वाल”की परम्परा शुरू हुई। इस बग्वाल में चार खाम उत्तर की ओर से लमगड़िया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक, पूर्व की ओर से गहडवाल के रणबांकुरे बिना जान की परवाह किये एक इंसान के रक्त निकलने तक युद्ध लड़ते हैं।
क्या है इससे जुड़े रहस्य
भले ही देवीधुरा मंदिर की ख्याति बग्वाल मेले से हो लेकिन यहां रखी ताम्र की पेटी अभी भी रहस्य बनाये हुए है। कहते हैं कि बाराही देवी की मूर्ति इसी ताम्र पेटी में रखी हुई है लेकिन अभी तक किसी ने श्रद्धालु ने खुली आंखों से इसके दर्शन नहीं किए है। और जिसने कोशिश की उसकी आंखों की रौशनी चली गई। हर साल भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा को बागड़ जाती के क्षत्रीय वंशज द्वारा ताम्र पेटिका को मुख्य मंदिर से नंद घर में लाया जाता है, जहां आंखों में पट्टी बांध कर मां का स्नान कर श्रगार किया जाता है। कहा जाता है कि मां की मूर्ति में इतना तेज है कि जो कोई भी उसे देखने की कोशिश करता है इस चमक से वह अपने आँखों की रौशनी खो देता है। रक्षाबंधन के दिन यहां बग्वाल मेला होता है जिसमें अब फलों द्वारा एक दूसरे पर वार किया जाता है। यह खेल तब तक खेला जाता है जब तक कि किसी के अंग से खून न रिश जाए। यहां के पुजारियों के मतानुसार ये फल हवा में जाकर पत्थर का रूप धर लेते है और इनकी चोट से शरीर पर खून बहने लगता है। मंदिर समिति के सदस्यों का कहना था कि विश्व प्रसिद्ध बग्वाल मेले के संचालन के लिए मंदिर कमेटी के पास संसाधनों की काफी कमी है। इसके लिए ट्रस्ट बनाया जाना जरूरी है। समिति के द्वारा इस बावत डीएम से बात की तो उन्होंने बताया कि ट्रस्ट गठन को लेकर प्रशासन को कोई आपत्ति नहीं है। चंपावत जिले में बग्वाल युद्ध के लिए प्रसिद्ध देवीधुरा के मां बाराही धाम की व्यवस्थाओं का संचालन कर रही मां बाराही कमेटी को ही विस्तृत स्वरूप देकर ट्रस्ट का दर्जा दिया जाएगा।
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