कृषि क्षेत्र में होते नए बदलावों के साथ अपने अस्तित्व को खो रहा है किसानी का मुख्य उपकरण--हल
क़िसी ज़माने में किसान की पहचान रह चुका हल जो चौपालों में चर्चा का विषय हुआ करता था वो हल अब अपनी ही पहचान खोते जा रहा है। समय के साथ साथ जीवन शैली में भी परिवर्तन आया है और कृषि क्षेत्र में भी वैज्ञानिक प्रयोगों से अब लोग पारंपरिक खेती की जगह आधुनिक खेती की ओर अग्रसर हो रहे है और आखिर हों भी क्यों नहीं जब हर क्षेत्र में लोग नए नए बदलाव के साथ अपना जीवन स्तर सुधार रहे है तो फिर किसान पीछे क्यों रहे। भारत के अधिकांश प्रदेशों में अब हल की जगह ट्रैक्टर ने ले ली है लेकिन उत्तराखंड में सीढ़ीनुमा और छोटे छोटे खेत होने की वजह से वहां ट्रैक्टर चलाना संभव नहीं हालांकि अब कुछ जगहों पर पोर्टेबल ट्रैक्टरों से लोग खेती करने लगे है लेकिन उससे भी पूरी सफलता नहीं मिली है। इसलिए हल आज भी उत्तराखंड के किसानों का साथी बना हुआ है। जब उत्तराखंड के गांवों में किसान कांधे पे हल रखे हुए और बैलों की घंटियों के मधुर स्वर के साथ खेतों के लिए निकलता है और खेतों में हल जोतकर जुताई करते समय उसके द्वारा निकाली जाने वाली विभिन्न प्रकार की आवाजें न केवल कानों को भली लगती थी बल्कि उससे पूरा वातावरण ही संगीतमय हो जाता था। हल की महत्ता आप इससे लगा सकते हैं कि हर बार त्यौहार में हल की भी पूजा करने का विधान आज भी है।
हल न केवल किसानों के हाथों से छिटक चुका है बल्कि प्रार्थमिक शिक्षा की बराखड़ी से भी ह से हल गायब हो चुका है। यही नहीं लोकदल पार्टी का चुनाव चिन्ह हल भी अब लोग बिसर चुके है। कठोर से कठोर धरती को चीर कर उसमें अन्न को अंकुरित करने में अहम भूमिका निभाने वाला ये हल आज यादों की एक गठरी बन चुका है। वैसे तो हिमालयी क्षेत्रों में आज भी हल देखने को मिल जाते है लेकिन अब अधिकतर जगह बाजार में लोहे से बने हल्के हलों का इस्तेमाल होने लगा है। एक समय था जब लोग पारंपरिक संसाधनों से ही हल को तैयार किया करते थे जो पूरी तरह से लकड़ी का बना होता था इसके निचले हिस्से में जो खेत को काटता है उसे बहाड कहा जाता है यह लोहे की एक नुकीली छड़ होती है और यही हल चलते समय जमीन को खोदती है।
उत्तराखंड के पहाड़ों में लकड़ी के हल्के व छोटे हल बनाए जाते है और इसे बनाने वाला भी बहुत ही तजुर्बेकार होता है क्योंकि उन्हें मालूम है कि हल की लंबाई चौड़ाई कितनी रखनी है और उसमें लगने वाले अन्य उपकरणों को कहां कहां और कितनी दूरी पर लगाना है क्योंकि जरा सा इधर उधर हो जाने पर हल लगाते समय दुर्घटना भी हो सकती है और व्यक्ति को गंभीर चोट आने का खतरा बना रहता है। उगौ या हतिन, नस्युड़ा, हत्था, लाठा जैसे प्रमुख भागों को जोड़कर हल तैयार किया जाता है।
आधुनिक काल में ग्रामीण इलाकों को भी शहरीकरण अब अपनी चपेड़ में ले आया है क्योंकि ग्रामीण युवा अब शहरी युवाओं के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए तैयार है जिसके चलते वो अपनी पारंपरिक संस्कृति के उलट आधुनिकता का चोला ओढ़ने लगे है और यही बदलाव भारत के गांवों को शहरों की और ले जा रहा है खासकर कि उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में अधिकांश खेती बारिश पर निर्भर करती है जिस कारण से अनेकों बार खेती में नुकसान ही उठाना पड़ता है। यह देखते हुए वहां का युवा शहरों की और अपना भविष्य बनाने निकल पड़ता है लेकिन वो एक बार भी नहीं सोचता कि जब हम हर चीज़ को आधुनिकता की नज़र से देख रहे है फिर खेती को एक बार इस नज़र से क्यों नहीं देखा गया। अब जब खेत ही छूट गए है तो बैल और हल से कैसा नाता, लेकिन में समझता हूँ कि सोच और नजरिया बदल रहा है तो हमारे युवाओं को भी वैज्ञानिक सोच के साथ अपनी पारंपरिक खेती से हटकर कुछ नया करने का प्रयास करना चाहिए। आजकल ऑर्गनिक का जमाना है तो हमें इसके लिए जानवरों को भी अपना साथी बनाना होगा और जब जानवर होंगे तो हल को भी नए प्रयोग के साथ नए लुक में लाना भी ईजी हो जायेगा।
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