जख्या-एक ऐसा मसाला जिसके स्वाद के देश ही नहीं विदेशी भी है दिवाने
उत्तराखंड को आप प्रकृति का खजाना भी कह सकते हैं क्योंकि यहाँ कि हर वस्तु में प्रकृति के गुण समाये हुए है जो हमें स्वस्थ शरीर के साथ साथ स्वस्थ जीवन भी देते है। अब बात करें यहां के खाने की तो बता दें कि खेती के अलावा भी कुछ खाद्य पदार्थ यहां ऐसे हैं जिन्हें प्रकृति स्वतः उगाती है लेकिन ये मनुष्य के लिए बहुत ही उपयोगी है। यदि आप कभी उत्तराखंड गए हों और आपने कुछ खाने के बाद अपने दांतो में कुछ बारीक़ सा फंसा होना महसूस किया होगा जिसका स्वाद जाने का नाम ही नहीं लेता हो और वो आपके दिलो दिमाग में छा जाए। जी मैं बात कर रहा हूं जख्या की जो कि बरसात के सीजन में प्राकृतिक रूप से स्वतः हो जाते है या फिर कोई कोई उसे नाममात्र के लिए अपने बगीचों में ऊगा देते हैं। इसे उत्तराखंड में अक्सर लोग खाने में तड़के के रूप में इस्तेमाल करते है लेकिन आज यह उत्तराखंड से निकल देश और दुनिया में खूब पसंद किया जा रहा है।
जखिया कैपरेशे (Cappridceac ) परिवार की 200 से अधिक किस्मों में से एक है। इसका वानस्पतिक नाम क्लोमा विस्कोसा (Cleoma Viskosa) है और यह समुद्रतल से 800 से 1500 मीटर की ऊंचाई में पाया जाता है। काले और भूरे रंग में दिखने वाला जख्या सरसों और राई के जैसा दिखता है और पहाड़ी खाने में इसका महत्व उतना ही है जितना की अन्य इलाकों में जीरे का होता है। प्राकृतिक रूप से उगने वाला यह जंगली पौधा रोयेंदार तने और पीले फूल लिए होता है, इसकी फली काफी लंबी होती है जिसमें जख्या के दाने होते हैं। जख्या की पत्तियां आपके शरीर के घाव और अल्सर को ठीक करने में सहायक होती है। एशिया और अफ्रीका में इसकी पतियों को पारंपरिक रूप से बुखार, सिरदर्द, गठिया और संक्रमण के निवारण के लिए भी प्रयोग किया जाता है। इसमें पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व खान-पान में इसके महत्व को और अधिक बढ़ा देते हैं। इसके बीज में पाया जाने वाला 18 प्रतिशत तेल फैटी एसिड तथा एमिनो अम्ल से भरपूर होता है इसके बीजों में फाइबर, स्टार्च, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन.विटामिन इ व सी, कैलसियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम, सोडियम, आइरन, मैगनीज और जिंक आदि पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं।
पहाड़ी ही नहीं बल्कि विदेशी भी इसके स्वाद के दिवाने हैं। खाने में इसके बीज का तड़का लगाने के अलावा इसके पत्तों का साग भी बनाया जाता है। इसमें पाए जाने वाले फ्लेवरिंग एजेंट इसके अद्भुत स्वाद के लिए जिम्मेदार है। आलू, पिनालू, गडेरी, कद्दू, लौकी (घिया), तोरी, हरा साग, आलू-मूली की थिंचाड़ी और झोई (कढ़ी) आदि व्यंजनों में इसका तड़का उनके जायके को बदल देता है। जखिये के स्वाद और महिमा को देखते हुए उत्तराखंड के सुर सम्राट, गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी ने इस पर एक बहुत ही कर्णप्रिय गीत मुळे थिंचवाड़ी मा जख्या को तड़का, कब्लाट प्वटग्यु ज्वनि की भूख, रच डाला।
वर्ष 2012 में प्रकाशित इंडियन जनरल ऑफ़ एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी के एक शोध के अनुसार जख्या के तेल में जैट्रोफा की तरह ही गुणधर्म, विस्कॉसिटी, घनत्व होने की वजह से ही भविष्य में बायोडीजल उत्पादन के लिए परिकल्पना की जा रही है। यही नहीं इसके बीज में 18.3 प्रतिशत तेल जो की फैटी एसिड, अमोनो अम्ल से भरपूर होता है भी लाभकारी पाया जाता है क्योंकि इसमें analgesic गुणों के साथ साथ ओमेगा-3 तथा ओमेगा-6 जैसे महत्वपूर्ण तत्व पाए जाते हैं।
इतने गुणों से युक्त और पौष्टिक व औषधीय रूप से महत्वपूर्ण जख्या को खरपतवार के रूप में जाना जाता है जबकि उत्तराखंड के ही स्थानीय फुटकर बाज़ार में इसकी कीमत 200 रूपये प्रति किलोग्राम है। एक महत्वपूर्ण बात यह है की इसमें विपरीत वातावरण, असिंचित व बंजर भूमि एवं दूरस्थ खेतों में भी उगने की क्षमता होती है। यदि जख्या को कम उपजाऊ भूमि तथा दूरस्थ खेतों में उगाया जाय तो यह बेहतर उत्पादन के साथ-साथ आर्थिकी का जरिया भी बन सकता है।
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