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आखिर गर्मी पड़ते ही क्यों जलने लगते हैं उत्तराखंड के वन- राजेंद्र जोशी

उत्तराखंड के वनों में आग



राजेंद्र जोशी

गर्मियां प्रारंभ होते ही उत्तराखंड का हरा भरा परिवेश, हिम आच्छादित पर्वत श्रेणियां कहीं धुएं के गुबार में खो जाती हैं। धू धू कर जलते हुए जंगलों को देख कर मन विचलित हो उठता है। यह एक सिलसिला सा बन गया है। गर्मियां शुरू होते ही समस्त उत्तराखंड आग की लपटों में घिर जाता है। आखिर ऐसा क्या होता है कि गर्मी पड़ते ही उत्तराखंड के वनों में आग लग जाती है? आग लगने के प्रति एक आम धारणा समाज में प्रचलित है, कि अत्यधिक गर्मी पड़ने से, पत्थरों की रगड़ से, चीड़ के वृक्षों से गिरने वाले फलों (छेंती) के धरती से टकराने पर आग लग जाती है। कभी कभी आकाशीय बिजली गिरने के कारण भी वनों में आग लग जाती है। चीड़ की सीक नुमा पत्तियां (पीरूल) अत्यधिक ज्वलनशील होती हैं, इसलिए वह आग आसानी से पकड़ लेती है और आग तेजी से आगे बढ़ने लगती है। देखते ही देखते आग सारे जंगल में फैल जाती है। किंतु आग लगने की इस प्रकार की घटनाएं अपवाद हैं। ऐसा होने की यदा कदा ही संभावना हो सकती है। यह भी आग लगने का एक कारण हो सकता है। लेकिन यही एकमात्र कारण वनों में आग लगने का नहीं हो सकता है। संभव है प्राचीन काल में ऐसी ही किसी घटना से हमारे पूर्वजों का अग्नि से साक्षात्कार हुआ हो। हो सकता है अग्नि के आविष्कार में इन्हीं कारणों का योगदान रहा हो। लेकिन पहाड़ों में प्रति वर्ष लगने वाली आग के लिए यही प्राकृतिक कारण उत्तरदायी हों ऐसा लगता नहीं है।

संपूर्ण उत्तराखंड के जंगलों में भयंकर आग लगी हुई है। ऋषिकेश से रिखणीखाल, कोटद्वार से काठगोदाम, हल्द्वानी से हरसिल, धारचुला से धनौल्टी, ग्वालदम से गैरसैण, अल्मोड़ा से अंजनीसैंण सहित समूचा उत्तराखंड आग की लपटों में घिरा हुआ है। उत्तराखंड का हरा भरा प्राकृतिक सौंदर्य आग को लपटों और आग के काले गाढ़े धुएं से अदृश्य हो गया है। हिम पर्वत श्रेणियां, निर्झर बहते झरने, नदी खेत गाँव धुएं की मोटी चादर में विलीन हो गये हैं। रात को सारे पहाड़ों पर आग की लपटें ऐसी लगती है जैसे पहाड़ों पर आकाशीय बिजली रेंग रही हो। यह दृश्य मन को भयभीत करने वाले हैं। संपूर्ण उत्तराखंड  के हरे भरे दृश्य धुएं के गुबार से ओझल से हो गये हैं। वृक्ष विहीन धरती की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वृक्ष मानव जीवन के लिए प्रकृति का दिया हुआ अमूल्य उपहार है। वृक्ष वर्षा जल के संचयन का कार्य करते हैं। जब वर्षा होती है तब वृक्ष वर्षा जल को सोख कर अपनी जड़ों से धरती के भीतर ले जा कर स्टोर करने का काम करते हैं। वह जल विभिन्न स्रोतों से अमृत धारा के रूप में प्रस्फुटित होकर हमारी प्यास बुझाता है। वृक्षों की जड़ें मिट्टी को जकड़ कर रखती हैं। जिससे मिट्टी का कटाव और भू स्खलन पर रोक लग जाती है। उत्तराखंड उन गिने चुने राज्यों में से एक है जहां वन क्षेत्र अभी भी काफी बड़े भू भाग में सुरक्षित है। किन्तु लगता है हर वर्ष आग की घटना से यहां के वनों पर भी संकट के बादल मंडला रहे हैं। 

वर्तमान युग में मनुष्य का जैसे जैसे जीवन स्तर बढ़ रहा है उसी प्रकार लग्जरी वस्तुओं के प्रति उसकी लालसा भी बढ़ रही है। बढ़ती जनसंख्या की लग्जूरियस आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति के लिए बढ़े पैमाने पर काष्ठ निर्मित सामग्री की आवश्यकता पड़ती है। भवन निर्माण, आवासों की आंतरिक साज सज्जा, घरों, कार्यालयों, कल कारखानों, होटलों, क्लबों सहित सभी प्रकार के मानव द्वारा निर्मित संरचनाओं के  निर्माण के लिए इमारती लकड़ी की आवश्यकता पड़ती है।जनसंख्या बढ़ने के साथ ही धरती सिमट रही है। वन कटते जा रहे हैं, वन घटते जा रहे हैं। वनों की जगह कंक्रीट के जंगल उग रहे हैं। कालोनियों का विस्तार हो रहा है, खेत और वन क्षेत्र सिकुड़ते जा रहे हैं। सारे विश्व में निर्ममता के साथ वृक्षों को काटा जा रहा है। लकड़ी की मांग दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आपूर्ति कम और मांग अधिक होने के कारण वन माफिया और लकड़ी तस्करों के गिरोह सक्रिय हैं। विश्व के सभी देशों में वनों के अत्यधिक दोहन पर रोक है। संगठित क्षेत्र इमारती लकड़ी की वैश्विक मांग की प्रतिपूर्ति करने में सक्षम नहीं है। इसलिए असंगठित क्षेत्र का कारोबार खूब फल फूल रहा है। आग का भी इसमें योगदान हो सकता है। हो सकता है आग वन माफिया द्वारा ही लगाई जाती हो?

कहीं इसके पीछे किसी माफिया के संगठित गिरोह का हाथ तो नहीं है? मुझे तो ऐसा ही प्रतीत होता है। हो न हो, हर साल गर्मियों में लगने वाली आग के पीछे एक संगठित गिरोह काम कर रहा है। हो सकता है इसके पीछे माफिया गिरोहों का मोटी  काली कमाई का कारोबार हो। यह भी संभव है बड़े बड़े लकड़ी के ठेकेदार, भ्रष्ट वन कर्मी, भ्रष्ट नेता, अधिकारी, पुलिस और वन माफिया तस्कर मिल कर आग का खेल खेल रहे हों। हो सकता है माफिया का संगठित गठजोड़ वनों की आग के लिए उत्तरदायी हो? भारत में रियल स्टेट बहुत तेजी से उभर रहा है। वह बृहद पैमाने पर भवनों का निर्माण कर रहा है। भवन निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर इमारती लकड़ी की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि आपूर्ति से अधिक लकड़ी की मांग है। मांग की पूर्ति कैसे हो? तब एक ही संभावना बचती है कि अवैध तरीकों से लकड़ी की मांग पूरी जाय। यह तभी संभव हो सकता है, जब बड़ी मात्रा में वृक्ष काटे जांय। तब एक ही राश्ता बचता है जंगलों को आग के हवाले किया जाय और जली बर्बाद लकड़ी के नाम पर आग से बच गये जले अधजले पेड़ों की आड़ में जंगलों की बहु कीमती लकड़ी की अंधाधुंध कटाई की जाय। भारी मुनाफे के लिए ऐसा करना आवश्यक है।

बिना जंगल जलाये लकड़ी की आपूर्ति संभव ही नहीं है। इसलिए जंगल माफिया  जंगलों को आग के हवाले कर देते हैं। कच्ची लकड़ी काटने पर सरकार द्वारा प्रतिबंध है। इसलिए एक सोची समझी रणनीति के तहत पूरी तैयारी के साथ वनों की हरियाली को माचिस की तीली से सुलगा दिया जाता है।

हालांकि इनको रंगे हाथों पकड़ना कठिन तो है, लेकिन असंभव नहीं है। यह काम दिन के उजाले में भी होता है और रात के अंधेरे में भी। घने जंगलों में किसी भी समय सुलगती बीड़ी के टुकड़े को सूखे पत्तों पर फेंक कर आसानी से स्वाहा किया जा सकता है। यह काम बिना रुकावट के यथावत जारी है। आग से अमूल्य वन संपदा, बहुमूल्य जड़ी बूटियों की हानि तो होती ही है। इससे वन्य प्राणियों, जीव जन्तुओं और पक्षियों सहित अन्य वन्य प्रजातियों का जीवन भारी संकट में पड़ जाता है। बड़ी संख्या में वन्य प्राणी अपनी जान खो बैठते हैं। साथ ही पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचता है। निरंतर और बड़े पैमाने पर जंगल जलने से तापमान में भी वृद्धि हो रही है। धुएं से वातावरण में कार्बनडाई आक्साइड गैस की मात्रा बढ़ जाती है और जीवन रक्षक आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। दुष्परिणाम स्वरूप सांस लेने में परेशानी होने लगती है। श्वांस  और दिल के रोगियों के लिए यह स्थिति भयंकर होती है। वन संपदा, जन स्वास्थ्य, जीव जन्तुओं समेत प्रति वर्ष आग लगने की घटनाओं से सैकड़ों करोड़ राजस्व की हानि सरकार को होती होगी।

सरकार द्वारा वन विभाग को स्पष्ट निर्देश दिया जाना चाहिए कि आग की घटनाओं को सरकार गंभीरता से लेगी, जो भी इसके लिए जिम्मेदार होगा उसके विरुद्ध कठोर कार्रवाई निश्चित है। किसी भी प्रकार से आग की घटनाओं पर रोक लगनी चाहिए। आग की घटनाओं की पुनरावृत्ति को सरकार और प्रशासन सहन नहीं करेगा। वन माफिया और शरारती तत्वों को जंगलों को आग के हवाले करने से पहले ही पकड़ा जाना चाहिए। आग लगाने के बाद पकड़ने से अपराधी पकड़ में आ भी गया तो भी जंगल जलने के कारण नुकसान तो हो चुका होता है। आग की घटनाओं के लिए सीधे तौर पर वन विभाग के अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। कभी दुर्घटना बस आग लग जाती है, उस स्थिति से निबटने के लिए वन विभाग, अग्नि शमक विभाग और सभी संबद्ध संस्थाओं में बेहतर ताल मेल होना चाहिए जिससे आग पर त्वरित नियंत्रण पाकर क्षति को कम से कम किया जा सके।

अग्नि शमन के लिए जो भी विभाग जिम्मेदार है उसके पास आग बुझाने से संबंधित सभी आधुनिक उपरण उपलब्ध होने चाहिए। आग बुझाने के लिए सामान्य प्रयोग में आने वाले कार्बनडाई आक्साइड सिलेंडर से लेकर अग्नि शमन के लिए प्रयोग में आने वाले हैलीकॉप्टर तक की सुविधा संबद्ध विभागों के पास हर समय उपलब्ध होनी चाहिए। 

पहाड़ों पर आक्सीजन की मात्रा मैदानी क्षेत्रों के अनुपात में वैसे ही कम होती है, आग लगने से धुएं के कारण आक्सीजन की मात्रा में भारी गिरावट आ जाती है और सारा वातावरण काले गाढ़े धुएं से प्रदूषित हो जाता है। जितनी शीघ्रता से हो सके प्रदेश सरकार, स्थानीय प्रशासन और जो भी वन रक्षा से जुड़ा हुआ विभाग है ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति अगले वर्ष से न हो इसके लिए उनको समय रहते कमर कस लेनी चाहिए। आग की घटना घटित होने पर स्थानीय संबद्ध विभाग, वन विभाग का उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया जाय। संलिप्त व्यक्ति या समूह पर गैर जमानती धाराओं के अंतर्गत कारावास का प्रावधान सुनिश्चित किया जाय। उनके अपराध को हत्या से किसी प्रकार कम नहीं समझा जाय। ऐसे षडयंत्र कारियों के लिए कठोर से कठोर दंड सुनिश्चित करने के लिए कानून में संशोधन करना पड़े या नया कानून बनाना पड़े तब भी ऐसा किया जाना चाहिए। इस तरह की कठोर कार्रवाई से वन माफिया के मन में भय पैदा होगा और वह गलत कार्य करने से पहले सौ बार सोचेगा। ऐसे कदमों से अवश्य ही माफिया पर रोक लगेगी तथा दुष्ट और अपराधी प्रवृत्ति के तत्व हतोत्साहित होंगे। वनों में बढ़ती आग की घटनाओं को हमें अविलंब रोकना ही होगा। 

वन से जन का संबंध सीधा जुड़ा हुआ है।वृक्षों से आच्छादित धरती और सघन वनों का होना स्वच्छ जलवायु और पर्यावरण के लिए अति आवश्यक है। वृक्ष विहीन वसुंधरा की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। वृक्ष नहीं होंगे तो - क्या होगा?।शुद्ध जल वायु नहीं होगी? शुद्ध जल वायु नहीं होंगे तो मानव का जीवन पर भी संकट आ जायेगा। वृक्षों की श्रृंखलाओं से ही वनों का निर्माण होता है। अपने आसपास अधिक से अधिक वृक्ष लगाकर इस धरती को संवारने के लिए हम सबको सहयोग करना चाहिए। वन संपदा का अंधाधुंध दोहन तत्काल बंद होना चाहिए। केंद्र सरकार को रियल स्टेट और काष्ठ से जुड़े उद्योगों के लिए विशेष नियमावली बनानी चाहिए। लकड़ी की घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सरकार को काष्ठ निर्माण संस्थानों को लकड़ी के विकल्प सुझाने चाहिए। उनको लकड़ी के नये विकल्पों पर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित और जागरूक किया जाना चाहिए। 

भवन निर्माण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लकड़ी पर निर्भरता कम से कम की जानी चाहिए। काष्ठ की जगह वैकल्पिक सामग्री पर अनुसंधान होने चाहिए। भवन निर्माताओं और आंतरिक साज सज्जाकारों को काष्ठ से निर्मित सामग्री, फर्नीचर इत्यादि की जगह अन्य वैकल्पिक सामग्रियों से वस्तुओं का निर्माण करना चाहिए। उपभोक्ता को भी जागरूक होना अति आवश्यक है। जिससे लकड़ी पर निर्भरता कम से कम की जा सके। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से लेकर जीवन के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए वृक्षों और वनों का होना हमारे लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। वृक्ष, जल, वायु विहीन जीवन की कल्पना भी संभव नहीं है। मानव जीवन सहित, प्राणी मात्र के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए हमें वृक्षों को, वनों को बचाना ही होगा। 

                                                      

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