कागभुशुंडि झील से दुनिया का परिचय कराया प्रकाश पुरोहित जयदीप ने
(आज जब सोशल मीडिया का दायरा बढ़ रहा है वैसे वैसे लोगों को घूमने का शौक भी बढ़ रहा है किंतु बहुत कम लोग ऐसे है जो घूमने के शौक के साथ-साथ लेखन की प्रतिभा भी रखते है। आज में आपको एक ऐसे स्वतंत्र पत्रकार की यात्राओं में से एक आपके साथ सांझा करूँगा जिन्होंने अस्सी के दशक में जब पहाड़ों में पर्याप्त सुविधाएं भी नहीं थी तब उन्होंने अपने पहाड़ और प्रकृति प्रेम के चलते न केवल मनोरम दृश्यों व दुर्गम स्थानों की यात्रा की बल्कि उन स्थानों को रेखाचित्रों में ढाल काव्यात्मक भाषा में उनका चित्रण किया। पहाड़ और पर्वतों की हर चोटी पर उन्होंने अपनी स्तिथि दर्ज कराई। कई ऐसे दुर्गम स्थान थे जिनके विषय में जानना तो दूर कोई पहुंच भी नहीं पाता था वहां जयदीप ने पहुंचकर उनका परिचय दुनिया से कराया इन्हीं में से एक है कागभुशुंडि झील प्रस्तुत लेख प्रकाश पुरोहित के यात्रा लेखों पर आधारित पुस्तक उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश से लिया गया है )
पर्वतों के उच्च भाग में चलते हुए पदयात्रा कब पर्वतारोहण में बदल जाय, हरी-भरी घाटी कब गदगद कर दे, खौफनाक हिमनद कब सहमा दें कुछ कहा नहीं जा सकता। बादल गरजते कहीं हैं तो बरसते कहीं है। न आरोह-अवरोह के क्रम का पता चलता है, न मौसम के मिजाज का ही अंदाजा लगता है।
प्रकृति के अनूठे तिलिस्मों के बीच एक स्वप्निल जगह है-कागभुशुंडि ताल। अभी तक अपरिचित इस स्थल के बारे में यह मान्यता है कि कौए यहाँ मरने के लिए आते हैं। जब हम कुछ साथियों ने यहाँ की यात्रा की तो हमें इस दुर्गम पर्वत पर कौओं के पंख पड़े हुए मिले। निसंदेह इस जगह को हम साक्षात रहस्य की भूमि कह सकते है। जर्जर शिलाखण्डों व् पत्थरों के ढेर के बीच यहां विशाल झील का होना स्वयं में एक आश्चर्य है।
चमोली जनपद में हाथीपर्वत (22141फीट) की गॉड में स्थित यह झील सुद्रतल से 16800फीट ऊंचाई पर है। फूलों की घाटी के रस्ते पर मोटर हेड से 10 किमी. दूर भ्यूंडार से शुरू होती है कागभुशंडी ताल की यात्रा। ऋषिकेश से बद्रीनाथ की दुरी 294 किमी. है। बद्रीनाथ से मात्रा 29 किमी. पूर्व एक जगह है गोविंदघाट (6100 फीट) . फूलों की घाटी व् हेमकुंड साहिब के लिए पैदल मार्ग यही से जाता है। दोनों स्थलों की दूरियां गोविंदघाट से 17 व 20 किमी. है। गोविंदघाट से 10 किमी. दूर स्थित है भ्यूंडार गांव जो समुद्रतल से 8100 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।
लोकश्रुति है की अयोध्या में एक विद्वान ब्राह्मण रहा करते थे, वे राम के परम भक्त थे. सारा समय सत्संग व भजन-कीर्तन में बिताते थे। एक बार उनकी भेंट एक सत्संग में ऋषि लोमश से हो गयी। ऋषि लोमश ब्रम्ह शब्द की व्याख्या कर रहे थे। विद्वान ब्राह्मण ऋषि के ज्ञान से बहुत प्रभावित हुए किन्तु ऋषि के कुछ विचारो से ब्राह्मण सहमत नहीं थे। उन्होंने नम्रतापूर्वक ऋषि के विचारों का खंडन किया। ऋषि लोमश एक साधारण ब्राह्मण से इस विरोध की आशा नहीं कर रहे थे। क्रुद्ध होकर उन्होंने श्राप दिया कि ऋषियों के विचार में जो सत्य निहित है उस पर संदेह करना पाप है। तुमने सत्य को झुठलाया है, इसके दंडस्वरूप तुम कौआ बन जाओगे। फिर अयोध्या का वह ब्राह्मण कौआ बन गया और वे कागभुशुंडि कहलाये। इस श्राप से कागभुशुंडि के मन में कोई कटुता नहीं आयी और श्री राम के प्रति उनकी अन्यन आस्था पूर्ववत बनी रही।
वह समय सृष्टि का स्वर्णयुग था। पहाड़, नदी, पशु-पक्षी चल और अचल सभी मनुष्य की वाणी बोलते थे। अयोध्या के ब्राह्मण कौआ जरूर बन गए पर वे मनुष्य की तरह अपने विहार व्यक्त करते थे। कागभुशुंडि सुदूर हिमालय पर सुमेरु पर्वत पर जा पहुंचें। एक सुरम्य सरोवर के किनारे कल्पवृक्ष के निचे उन्होंने। वे इस मनोरम झील में स्नान करते व कल्पवृक्ष पर बैठकर श्रीराम कथा का वर्णन करते। पशु-पक्षी, मानव देवता सभी उनके अमृत वचनों को सुनते व मुग्ध-तृप्त होते।
भ्यूंडार गाँव के लिए फूलों की घाटी का रास्ता छोड़कर उत्तर की ओर चलना पड़ता है। एक बड़ी अधखुली घाटी कौतुहल पैदा करती है। 2 -3 जगहों पर उफनती नदी को पार करके उसी घाटी में पहुंचा जाता है जहाँ दुर्गम पर्वतों के बीच स्वप्निल सौंदर्य लेटा हुआ है।
भ्यूंडार गांव से दक्ष व अनुभवी युवा गाइड को लेकर चलना चाहिए। गांव की सरहद को छोड़ते निर्जन पथ पर दो-तीन जगह नदियों पर पल की जगह केवल लकड़ी के बड़े लट्ठे रखे हुए हैं। उनपर संतुलन बनाकर चलना पड़ता है फिर घनी झाड़ियां शुरू हो जाती है। 4 किमी. बाद रख उडियार गुफा आती है यहां सुस्ताया जा सकता है और खाना-पीना बनाया जा सकता है।
घनी आदमकद झाड़ियों से संघर्ष करते चढ़ाई का रास्ता शुरू हो जाता है। मौन, नि शब्द जंगल के बीच कहीं-कहीं ही किसी पक्षी का स्वर सुनाई देता है। अन्यथा सन्नाटा फैला रहता है। कहीं-कहीं चट्टानों का जमघट है तो कहीं रेतीला विस्तार। संकरा क्षेत्र पार करने के बाद एक बड़ी मनोरम घाटी के दर्शन होते हैं। मखमली घास के चितचोर मैदान देखकर उड़नछू हो जाती है। यहां असंख्य फूल खिले रहते हैं , फूलों की इस दिलकश घाटी का नाम सिमरतोली खर्क जो समुद्रतल से 10000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। रख उडियार से इसकी दूरी 6 किमी. है। वर्षा काल में जब राशि-राशि फूल हंसते हैं तब यहां अवर्णीय सौंदर्य बिछ जाता है। घाटी के एक छोर में देवदार वृक्ष के घने जंगल हैं तो दूसरे छोर में एक दुग्ध धवल नदी प्रवाहित हो रही है। टैंट लगाने यानी रात्रि निवास के लिए यह बेहतरीन खुशनुमा पड़ाव है। संयोगवश आप यहां हिरन, कस्तूरी मृग, थार देख सकते हैं।
सिमरतोली से 3 किमी. आगे नागतोली है। यहां बताते हैं कि नागु अजगर रहते हैं। फिर एक बड़ी पथरीली घाटी डाँगरखर्क में हम दाखिल होते हैं। यहाँ से दुर्लभ भोजपत्र वृक्षों का जंगल शुरू हो जाता है। एक हरी-भरी पहाड़ी रिज पर लगातार चढ़ते हुए साँस बेतरह फूलती है। ऑक्सीजन की मात्रा कुछ काम होने लगती है।
3 किमी. बाद हम 14000 फीट की ऊंचाई पर एक बड़े हिमनद(ग्लेशियर) के ऊपर होते है। यह रोंगटे खड़े स्थल हठी पर्वत पर विशाल ग्लेशियर के ऊपर जमे मलवे पर स्थित है। ये हिमखंड जमकर कठोर हो गए हैं। मलवे के कारण बर्फ की सफेदी नहीं दिखती। सिर्फ कंकड़-पत्थर का ऊबड़-खाबड़ मैदान ही प्रतीत होता है। यह फैलाव कम से कम एक किमी. तक है। इसी फैलाव से आगे को जाना पड़ता है। जगह-जगह पर बड़ी डरावनी दरारें हैं। यहाँ संभलकर चलना पड़ता है।
ग्लेशियर से पार होते ही एक रिज से नीचे उतारकर पुनः हल्के बढ़ते 3 किमी. बाद हम चिंताकर्षक बुग्याल राजखर्क (15000 फीट) पहुंचते हैं। सामने गर्वोन्नत हठी पर्वत शिखर खड़ा है। घाटी के सीने पर बीसियों जलधाराएं फिसल रही है। असंख्य फूल खिले रहते हैं। राज खर्क से विअकत चढ़ाई है। चट्टानों पर भी चढ़ना पड़ता है तो कहीं बर्फ में चलना पड़ता है। यहाँ से 4 किमी. की समयखाऊ बीहड़ यात्रा के बाद पहुंचते हैं कनकुलखाल दर्रा (18000 फीट) . दर्रे से दूसरी तरफ एक बड़ी झील दिखाई देती है यही है कागभुशुंडिताल। दर्रे से एक किमी. बाद झील में पहुंचकर अद्भुत आनंद की अनुभूति होती है। यह झील डेढ़ किमी. परिधि की है। झील अधिक है। झील के किनारे चट्टान व पत्थरों का अटूट सिलसिला है। यहां 3-4 महीने स्थानीय भेड़पालक सैकड़ों भेद-बकरियों को लेकर रहते हैं। ये बहुत सरल स्वाभाव के मृदुभाषी व आतिथ्य-सत्कार वाले लोग हैं। आपके आते ही वे नमस्कार करेंगे, मोटे कंबल बिछाएंगे, बकरी के दूध की बानी गरम चाय पेश करेंगे साथ ही अपनी छोटी सी कुटिया में आपके रहने का प्रबंध भी कर देंगे। पड़ाव के लिए यह सर्वोत्तम स्थल है। इन लोगों को स्थानीय भाषा में "पालसी" कहते हैं। ये बेहद साहसी, संघर्ष प्रिय, मेहनती लोग हैं। कठिन दर्रों, ग्लेशियरों, पर्वतों पर ये हँसते-हँसते चले जाते हैं। बकरियां इनके पीछे-पीछे चलती हैं। जहां अच्छी घास दिखी, सुरक्षित पड़ाव मिला, कुछ समय तक डेरा डाल देते हैं, फिर अगले पड़ाव की ओर चल देते हैं।
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