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भ्रातृ प्रेम की मिशाल है गढ़वाली लोक कथा सदई और सदऊ

 

भ्रातृ प्रेम की मिशाल है गढ़वाली लोक कथा सदई और सदऊ  

किसी भी देश प्रदेश की संस्कृति को आगे बढ़ाने और समझने के लिए लोक गीतों और लोक कथाओं का बहुत महत्व होता है। ये लोक कथाएं न केवल रोचक होती है अपितु आम आदमी के जीवन से जुड़ी होती हैं। भारत देश के उत्तराखंड प्रदेश में तो ऐसी अनेकों लोक कथाएं है आज आपको ऐसी ही एक कथा के विषय में बताते हैं जो लोक कथाओं में भ्रात प्रेम के रूप में घर घर में गाई जाती है। यह कथा सदई की है जो दिसा-ध्याणियों (बहन और बेटियों) के मन की व्यथा को उजागर करती है। उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में अक्सर दूर डांडों (जंगलों) में घास लकड़ी के लिए गई विवाहित युवतियां अपने मायके की याद करते हुए इस कथा को गीतों के रूप में गाती हैं।  

कहा जाता है कि प्राचीन समय में पौड़ी गढ़वाल के राठ क्षेत्र की एक साधारण परिवार में जन्मी कन्या सदई का विवाह दूरस्थ क्षेत्र चमोली कर्णप्रयाग के -कठूड/थाती कठूड गांव में कठैत परिवार में हुआ था। सदई अपने परिवार की इकलौती संतान थी और भाई की कमी उसे सदा ही कचोटती रहती थी। विवाह पश्चाल उसकी भी आस थी कि मायके से उसे भी कोई याद करने आये किंतु संयोगवश या उसका ससुराल अधिक दूर होने की वजह से उसका कोई भी सगा संबंधी काफी लंबे समय तक उसकी सुध लेने नहीं आया।  ससुराल में अपने मन की बात किसी से न कह पाने और मायके की याद में खोई सदई ने अपने मायके के लिए जाने वाले एक ऐसे रास्ते में  शिलंग का पेड़ लगाया जहाँ से उसके मायके की धार दिखाई देती थी।  वह बड़े ही प्रेम और श्रद्धा से शिलंग के पेड़ की देखभाल करती और जब भी परिवार की याद आती वो उसे अपने मन का दुख बताती ऐसा करके वो अपने परिजनों की याद को कुछ समय के लिए भूल जाती थी। 

उत्तरखंड में चैत के महीने में दिसा ध्याणियों को उसके मायके वालों की तरफ से कलेवा (कल्यो) लाने का प्रचलन है।  गांव में अन्य बहुओं के भाई-बंधु कल्यो लेकर आते तो सदई का  मन अत्यंत  दुखी हो जाता था ऐसे में वो सिलंग के पेड़ के पास जाकर अपने मायके की कुलदेवी को झाली माता से अपना दुःख बांटती और अपने लिए भाई देने की प्रार्थना किया करती थी। इसके लिए उसने देवी से प्रतिज्ञा भी कर ली कि यदि वह उसको भाई होने का वरदान देंगी तो वह  देवी की हर इच्छा को पूर्ण करेगी। उसकी भक्ति से देवी ने प्रसन्न होकर सदई की मनोकामना पूर्ण की। सदई के माता पिता को पुत्र की प्राप्ति हुई और उसके जीवन में भाई की कमी पूरी हुई। इधर सदेई के अपने घर भी दो पुत्रों ने जन्म लिया जिनका नाम उमरा और सुमरा थे। इस बीच वह अपनी व्यस्थता के कारण कई साल तक भाई को देखने मायके नहीं जा पाई। 

उधर सदऊ जब बारह वर्ष का हुआ तो उसने अपनी मां से अपनी दीदी के विषय में जाना । मां से उसे ज्ञात हुआ कि उसकी दीदी का ससुराल दूरस्थ क्षेत्र में है। कुछ दिनों बाद सदऊ को स्वप्न में दिखाई दिया कि उसकी दीदी उसके लिए काफी दुखी है और जंगल में एक पेड़ के नीचे रो रही है। अगले ही दिन उसने मां को स्वप्न की बात बताई और अपनी दीदी से मिलने की इच्छा जताई मां ने उसे समझाया की तेरी दीदी बहुत दूर रहती है रास्ते में घने जंगल और नदी नाले पड़ते हैं पर उसने दीदी से मिलने की जिद्द कर दी। उसकी जिद्द को देखते हुए मां ने उसे डरते डरते जाने की इज्जाजत दे दी। मां से दीदी के लिए कल्यो (कलेवा) लेकर सदाऊ घने जंगलों के कष्ट को सहते हुए अपनी दीदी के ससुराल जा पहुंचा। भाई को सामने देख सदई का ख़ुशी का ठिकाना न रहा और ख़ुशी में अपनी पूर्व प्रतिज्ञानुसार झाली माता को अठवाड़ (एक प्रकार का पूजा अनुष्ठान) में पशु बलि देने लगी तो उसी समय आकाशवाणी हुई कि देवी पशुओं की बलि से संतुष्ट नहीं होगी। ऐसे में सदेई दुविधा में पड़ गई और खुद को बलि स्वरुप स्वीकार करने के लिए देवी से प्रार्थना करने लगी किन्तु देवी ने स्त्री बलि स्वीकार करने से मना कर दिया।  देवी के आदेशानुसार सदई के भाई या पुत्रों  की बलि ही उसे मान्य है। (यहां देवी शायद उसकी परीक्षा स्वरूप ऐसा कह रही थी) सदई किसी भी कीमत पर देवी की मनोकामना  के उपरांत मिले अपने भाई को नहीं खोना चाहती थी। लेकिन अपनी प्रतिज्ञावश उसने अपने पुत्रों को भाई के बदले बलि स्वरुप देवी को भेंट कर दिया। 

भाई के प्रति उसके अटूट प्रेम को देखकर सदई पर देवी झाली माता अति प्रसन्न हुई और देवी ने उसे घर के अंदर जाने का आदेश दिया। जब सदई घर में प्रविष्ट हुई तो उसने देखा कि अभी अभी देवी को अर्पित उसके दोनों पुत्र उमरा और सुमरा जीवित हैं और अपने मामा सदाऊ के साथ बाल क्रीडाओं में मग्न हैं जिसे देखकर सदई की आंखों से अश्रुधारा छलक आई और वह बारंबार देवी का धन्यवाद करने लगी । 

सदई की यह कथा अजर-अमर हो गई और तब से उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में जागरी इस कथा को लोगों को सुनाते हैं। सदई कथा में जागर की अंतिम पंक्तियां श्रोताओं के लिए आशीर्वाद के रूप में इस प्रकार है :-

धन्य होली वा वैण सदेई ,

धन्य होलु वो भाई सदेऊ, 

धन्य भाई बैण की वा पिरीत, 

जु हमुन गीत मा गाई,

सदेई का घौर जनो होए संगल, 

होयां तुमकु भी दिसा धियाण्ययो। 


 


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